Sunday, August 29, 2010

मेरे लेख अब scribd.com पर भी उपलब्ध

इस ब्लॉग पर मेरे कुछ लेख हैं। अब तक वे लेख 4shared.com पर संचित कर वहां के लिंक पोस्ट में डाले हुए थे। कुछ मित्रों ने उस वेबसाईट से डाऊनलोड करने में असुविधा होने की बात बताई। इसलिए उन लेखों को अब scribd.com पर भी संचित कर दिया है और सभी सम्बंधित पोस्ट में यह नया लिंक भी डाल दिया है। आप इस नए लिंक को राईट क्लिक कर नए विंडो में लेख को पढ़ सकते हैं बिना डाऊनलोड किए.

Friday, August 27, 2010

ट्रांजेक्शनल एनालिसिस एवं स्क्रिप्ट थ्योरी (TA and Script Theory) पर आलेख

ट्रांजेक्शनल एनालिसिस एवं स्क्रिप्ट थ्योरी के विषय में यदि आपकी अभिरुचि हो तो शायद यहाँ उपलब्ध आलेख आपको उपयोगी लगे। आप चाहें तो scribd.com पर पढ़ने के लिए यहाँ राईट क्लिक कर नई विंडो में खोल सकते हैं.

Wednesday, August 25, 2010

एक शिशु प्रलाप : In Retrospect

इसके प्रथम पाठक ने कहा, “अच्छी कविता है. समझने का प्रयास किया पर सफलता नहीं मिली.” मुझे याद आया कि प्रिय शिशु की प्रारंभिक ध्वनियों को हम निरर्थक प्रलाप समझते हैं परंतु तब भी शिशु के प्रति प्रेम के कारण वह हमें अच्छी भी लगती हैं और हम यह भी कहते हैं कि समझ न आई पर आवाज बड़ी प्यारी है.
तो, प्रथम पाठक की टिप्पणी को स्नेह-अभिव्यक्ति समझ केवल आभार प्रकट किया जा सकता है.
क्या आप कोई राय देंगे?


In Retrospect

A few trades’ jack
now in my fifties
do sometimes look back
how I wished to master all
while floating in twenties.

Went all into dust
which I imagined at crosses
to be the sculptured bust
got left only with the flame
whatever caressed reduced to ashes.

Was just chips and gravel
when the one who dreamt
took from me a red jewel
and told me over phone
“we talked a lot till you went.”

Little did the fairy know
I was really really spent
like arrow slipped from bow :
and poseessed never the ruby
she thought I had sent.

Over time every sump dries
no fingers approach my cheek
no tears roll from my eyes
sleeps the world and I retrospect
how had I been terribly meek.
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Monday, August 23, 2010

वह कवि की तुम

नाटोर कोथाय,
के वनलता,
सुश्री सेनेर की कथा?

सोचा और कहा जीवनानंद ने हौले से
“कविता का मैं हो
मैं कवि का भी,
जरूरी तो नहीं.”

सुन ली चुपके से उसने
यह वार्ता हमारी,
और पूछा:
“कवि मेरे, वह जो आती है
वह कि तुम बन कर,
तुम्हारी तुकबंदियों में:
वह मैं हूँ क्या?”

कैसे, किसे बता पाए कौन,
झड़ती पँखुड़ियाँ देसी गुलाब की
ढोतीं नहीं अंगुलियों के निशान,
केश-जल में सद्य:स्नाता के
नहीं लिखा होता नदी का नाम,
और
अंगीकार नहीं होता मुहताज
किसी इकरारनामे का,
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जिसे आप गिनते थे आशना, जिसे आप कहते थे बावफा

आज मन में आ रहा है कि मोमिन की यह गज़ल भी आपके सामने रखूँ.

वो जो हम में तुम में करार था, तुम्हें याद हो के न याद हो
वही यानी वादा निबाह का, तुम्हें याद हो के न याद हो.

वो नये गिले, वो शिकायतें, वो मज़े-मज़े की हिकायतें
वो हरेक बात पे रूठना, तुम्हें याद हो के न याद हो

कोई बात ऐसी अगर हुई, जो तुम्हारे जी को बुरी लगी
तो बयां से पहले ही भूलना, तुम्हें याद हो के न याद हो

सुनो ज़िक्र है कई साल का, कोई वादा मुझसे था आपका
वो निबाहने का तो ज़िक्र क्या, तुम्हें याद हो के न याद हो

कभी हम में तुम में भी चाह थी, कभी हमसे तुमसे भी राह थी
कभी हम भी तुम भी थे आशना, तुम्हें याद हो के न याद हो

हुए इत्तेफाक से गर बहम , वो वफ़ा जताने को दम-ब-दम
गिल- ए- मलामते-अक़रबा, तुम्हें याद हो के न याद हो

कभी बैठे सब हैं जो रू-ब-रू, तो इशारतों ही से गुफ्तुगू
वो बयान शौक़ का बरमाला, तुम्हें याद हो के न याद हो

वो बिगाड़ना वस्ल की रात का, वो न मानना किसी बात का
वो नहीं नहीं की हरेक अदा, तुम्हें याद हो के न याद हो

जिसे आप गिनते थे आशना, जिसे आप कहते थे बावफा
मैं वही हूँ मोमिने-मुब्तला तुम्हें याद हो के न याद हो

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आज ऐसे मिला है वो, कभी पहले जैसे मिला न हो

कुछ वक्त ऐसे आते हैं कि कुछ खास चीजें पढ़ने का बड़ा जी करता है।
आज खयाल आ रहा है कि बशीर बद्र की यह गज़ल आप सबसे शेयर करूँ।
अब याद नहीं आ रहा कि कहाँ से मिली थी यह जब इसे अपने कम्प्यूटर में रख लिया था।
देखिए कैसी लगती है:

कभी यूं भी आ मेरी आंख में, कि मेरी नजर को खबर न हो
मुझे एक रात नवाज दे, मगर उसके बाद सहर न हो

वो बड़ा रहीमो करीम है, मुझे ये सिफ़त भी अता करे
तुझे भूलने की दुआ करूं तो मेरी दुआ में असर न हो

मेरे बाज़ुऔं में थकी थकी, अभी महवे ख्वाब है चांदनी
ना उठे सितारों की पालकी, अभी आहटों का गुजर न हो

ये ग़ज़ल है जैसे हिरन की आंखों में पिछली रात की चांदनी
ना बुझे ख़राबे की रौशनी, कभी बेचिराग़ ये घर न हो

वो फ़िराक़ हो या विसाल हो, तेरी याद महकेगी एक दिन
वो गुलाब बन के खिलेगा क्या, जो चिराग़ बन के जला न हो

कभी धूप दे, कभी बदलियां, दिलोजान से दोनो क़ुबूल हैं
मगर उस नगर में ना कैद कर, जहां ज़िन्दगी का हवा न हो

कभी यूं मिलें कोई मसलेहत, कोई खौफ़ दिल में ज़रा न हो
मुझे अपनी कोई ख़बर ना हो, तुझे अपना कोई पता न हो

वो हजार बागों का बाग हो, तेरी बरकतो की बहार से
जहां कोई शाख़ हरी ना हो, जहां कोई फूल खिला न हो

तेरे इख़्तियार में क्या नहीं, मुझे इस तरह से नवाज़ दे
यूं दुआयें मेरी क़ुबूल हों, मेरे दिल में कोई दुआ न हो

कभी हम भी इस के क़रीब थे, दिलो जान से बढ कर अज़ीज़ थे
मगर आज ऐसे मिला है वो, कभी पहले जैसे मिला न हो

कभी दिन की धूप में झूम कर, कभी शब के फ़ूल को चूम कर
यूं ही साथ साथ चले सदा, कभी खत्म अपना सफ़र न हो

मेरे पास मेरे हबीब आ, जरा और दिल के क़रीब आ
तुझे धडकनों में बसा लूं मैं, कि बिछड़ने का कभी डर न हो.
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