Monday, November 29, 2010

फोन किसी का सुनते हुए

अभी ही जाना है, मायूस था वह जो यह पूछते हुए
रुख्सत याद दिलाया है, फोन किसी का सुनते हुए।

जिरह-बख्तर बेकद्री के, शम्शीरे-बदजुबानी लिए
शहंशाह-फ़हम हूँ, गैर की बस्ती में गुजरते हुए।

परख-परख के राह, फूंक-फूंक कदम जो रखते हैं
नावीनगी छाती है उन्हीं पर अक्सर फिसलते हुए।

जोर तमाम लगाया बगूलों ने गिराने में जिसे
मुअत्तर हवा को कर गया वह गुल संभलते हुए।

तनाबकुशाई न की रात भर असीरे-आरिजे कंवल ने
पासे-शिगाफ़े-गुल ने रोका उसे मुहर-ब-लब करते हुए।

यह नहीं हरगिज़ कि नामालूम  हकी़कते-दाम उसे
माइल-ब-मुनाज़ात-ए-माहीगीर  है वह फंसते हुए।

होशमंद है बहुत सुजीत आमदे-शफ़क़ तक हर रोज
ज़ाँ-ब-लबी आ जाती है बस खयाले-महवश आते हुए।
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इस रंग के पदों पर माउस रखने से आप उनके अर्थ देख सकते हैं |
यह व्यवस्था करने की सलाह देने वाले कवि मित्र श्री अजीत को धन्यवाद |