Saturday, December 31, 2011

शुभ नव वर्ष

सभी मित्रों को नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं.  

Sunday, December 25, 2011

अप्रील 2010 की एक और कविता -- पूर्ण सम्पूर्ण


अपनी पूर्ण सम्पूर्णता से
ईश्वर ने अपूर्ण किया मुझे
कि जीभ तक न दी पूरी
और
उचरे न कभी शुद्ध
मेरे शब्द.

और
हा
तुमने तो कभी
सोचा ही नहीं कि
नज़र से सुनो मुझे.

डोब कर उँगली अपने व्रणों में
उकेरे हैं मैंने चित्र कुछ
किंतु तुमने देखा नहीं है
उन भोजपत्रों को,

कि

रक्ताक्त पत्र पुष्प
ले नहीं जाए जाते
वरदायिनी के मंदिर में
और
बेला, अगर, चंदन, रोली
ईश्वर ने दिये नहीं मुझे.
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अप्रील 2010 की और दो कविताएँ



(एक)



आच्छादती जा रही थी बेल
और
हुमक कर बढ़ ठिठक रहा था
आम्रद्रुम.

बौराए से आए लोग
दरांतियाँ लेकर

कि
आ रही है रुत
बौर आने की

कैसे मिलेगी धूप वृक्ष को
जो काटी न वल्लरी.

धूप सर पर उठाए
बुनता रहा छाँह आम
कतरी बेल के पत्रों हित.

अहा,
आज बुढ़ाते इस पेड़-सा
खुश कौन है जहाँ में

कि उड़ कर चिपट गई है
वल्लरी उस से
बन कर अमरबेल.

अब जड़ है ऊपर
बेल की
और
कल्पद्रुम समझ
स्वयं को,
इतरा रहा है आम.
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(दो)


मैं कर रहा हूँ महसूस
तुम्हारा दर्द ,

जानता हूँ कि
किस तरह खरोंचें लगाता है
अपने डैनों की धार से,
झपट्टे मारता तेरे गिर्द बार बार
यह मुआ श्येन मृत्यु का.

मैं देख रहा हूँ
दूर, बहुत दूर, तुम्हें
शोकाकुल, विह्वल, दोहरी दर्द से,
व्यथा - स्तब्ध, गुमशुम, उदास ;

और यात्रारत :

कि
यात्राएँ भी तो आती हैं हमारी राहों में
तय करवा कर अपनी दिशा, अवधि, दूरी.

यह तुषारापात
हिम, तुहिन के पथ पर चलती हुई तुम पर,
और शोकाकुल स्तब्धता तुम्हारी ,
कर गए हैं मुझे जड़
कि ज्यों फ़ालिज़ सा पड़ गया हो
मेरे मस्तिष्क पर .

मैं सोच नहीं पा रहा
कैसे दूँ सान्त्वना तुझे ,
और कैसे दूँ सान्त्वना
तेरे दुःख से दग्ध, तड़पते खुद को भी.
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अप्रील 2010 की कुछ कविताएँ -- कोई कश्मीर में – दो सतरें



(एक)

साँझ ढले आई है
मुनिया सूरज के आँगन की
और
बाँट रही है आइसक्रीम .

इस गर्म मौसम में यहाँ
रख दी है मैंने भी तश्तरी
तालाब के तल पर
और हूँ खड़ा किनारे

कि गर्म कपड़ों में अपने शिकारे पर
तुमने भी शायद लिया हो आनंद अभी
कहवे का
इस मलाई की बरफ के साथ.
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(दो)


ताप दुःसह ऊपर से प्रवहमान
और
बगूले बगल के उड़ाते
गुबार नीचे उठ रहा :

निकलता रहा हूँ हर शाम
दर्दीली आँखें लिये
दफ़्तर से मैं .

पाता रहा सुकून
अखबार देखने भर को –
तेरे ही दरस से

कि ज्यों परस गया हो पलकों को
ओस नहाया कोई गुलाब .

पर अब जब कि
गई हो तुम
फूलों की वादियों और बरफीली घाटियों के देस,

पढ़ता हूँ मैं
आग भरी आँखों से
बस वहाँ के मौसम का हाल –

और सोचता हूँ

देख रहा होगा गुलमर्ग पहली बार
खिला हुआ बाग पूरा का पूरा
ठंड से कपकपाती
एक ही लता पर .
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Monday, August 29, 2011

सजा सख्त है बेगुनाही की यहाँ

एक मुद्दत हो गयी जबान को सुन्न पड़े हुए. आज कुछ कहा है -- पढ़ देखिए:

हर इक वार पर मुस्कराता हूँ
यूँ मैं जालिम को जलाता हूँ |

किए ख़ार अता हमें गुल ने
मम्नून हूँ, सर पे सजाता हूँ |

दरकुशाई तो अख्तियार उसका
मैं फ़कत फर्जे-आशिकी निभाता हूँ |

दिक न होवे वो बपहलुए रक़ीब
मैं दूर से सलाम बजा लाता हूँ |

सजा सख्त है बेगुनाही की यहाँ
इज्जे-मुंसिफ़ में चुप रह जाता हूँ |

ये तीरगी शदीद तर कि तूफ़ाँ ये
शम्मए दिल बारहा क्यूँ जलाता हूँ |

नालः चीज अक्सीर है सुजीत बड़ी
अश्के-रुख मैं इसी से सुखाता हूँ |
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Monday, June 20, 2011

मेरी एक लघुकथा

नेट पत्रिका लघुकथा.कॉम ने भी जून 2011 के कथादेश में प्रकाशित मेरी एक लघुकथा को अपने जून अंक में प्रकाशित किया है. आप इसे यहाँ पढ़ सकते हैं.

Sunday, March 20, 2011

लहू मिरा रायगाँ न था

फूल ने तितली से कुछ कहा न था
दरम्याँ अब बचा कोई मुद्दआ न था

झुका तो था वो हस्बे-मामूल ही
दह्‌न-ए-गुंचा आज नीम – वा न था

रंग ही रंग जमीं, गुलाल उफ़क में
होलियाना मगर इस शाम फ़ज़ा न था

यूँ गर्के-अब्र हो जाएगा बादे-कुर्बत
दह्र को मह पे इसका गुमाँ न था

उस आतशे खुशूशी की हयादारी वल्लाह
तपिश रूह-कुशाँ, मगर कोई धुआँ न था

रंग लिए परचम अपने जब हजारों ने
कहा बिस्मिल ने, लहू मिरा रायगाँ न था

वक्त मुंसिफ़ को बताएगा इक दिन जरूर
मायूस-‌ओ-नाचार था, सुजीत बदगुमां न था
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Saturday, March 19, 2011

होली की शुभकामनाएँ

होली का यह वसन्तोत्सव आपके जीवन - पथ को आपके चुने हुए रंगों के फूलों से सजाए –पथ के समस्त कण्टकों (और शुष्क मृणालों को भी)
होलिका के ही संग जलाए ।

Monday, March 14, 2011

किसी रोज दर्द मेरा भी तो उठान में आवे

इक बार कभी जिक्रे-खुदा तो मेरे दीवान में आवे
माहताब जो भूले से भी मेरे आसमान में आवे

बेकल तो रहते हैं हम उसकी सदा के लिए जरूर
इलाही कुछ लुत्फ उसे भी तो मेरे बयान में आवे

जाने है जमाना कि है शिफ़ा लम्स में उसके
हैफ़ किसी रोज दर्द मेरा भी तो उठान में आवे

बदहवास इतना है वो अपनी ही जुस्तजू में
कैसे छिन भर भी ये मुरीद उसके ध्यान में आवे

गुलाब चुन चुन जो रोज सजाता उसके लिए सुजीत
निशाँ इसके लहू का भी तो उस गुलदान में आवे
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Tuesday, March 8, 2011

मेरा साया सब्जाँ को रेत बना देता है


वह माहताब इतनी बुलन्दी पर बिस्तर रखता है
कभी खशो-खार-ओ-गुलाब नजर नहीं आता है

चलेगा कैसे वह गुँचा-पा मेरे साथ कदम भर भी
मेरा साया शबनमी सब्जाँ को रेत बना देता है

दर्द सिन्दूर का कहेगी किससे ये धरती की बेटी
राम परित्यागी, मनुहारी को जग रावण कहता है

इतना खोल दिया है खुद को उसके सामने हमने
इक वर्क अपना इस फटे बस्ते में धरते डरता है

हलक़ भींच के धोते हैं रुख अश्क से हम और
उसे शिकवा यह कि तू ताजा-दम न दिखता है

नफ़्स अपनी दबा रखे है सुजीत पा उसे फोन प
बेमुरव्वत अपनी गुफ्तगू को खत्म नहीं करता है

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