Sunday, May 23, 2010

कलीम आजिज़ की गज़ल

मेरे ही लहू पर गुजर औकात करो हो
मुझ से ही अमीरों की तरह बात करो हो

दिन एक सितम एक सितम रात करो हो
कि दोस्त हो, दुश्मन को भी तुम मात करो हो

हम खाक-नशीं, तुम सितम आरा ए सरे- बाम
पास आके मिलो, दूर से क्या बात करो हो

हमको जो मिला है वो तुम्हीं से तो मिला है
हम, और भुला दें तुम्हें, क्या बात करो हो

यूँ तो मुझे मुँह फेर के देखो भी नहीं हो
जब वक्त पड़े है तो मदारात करो हो

दामन पे कोई छींट, न खंजर पे कोई दाग
तुम कत्ल करो हो कि करामात करो हो


बकने भी दो आजिज़ को जो बोले है बके है
दीवाना है, दीवाने से क्या बात करो हो

अमीर खुसरो की एक मशहूर गज़ल

पिछली पोस्ट में सैकड़ों साल पहले के कवियों की रचनाओं का आनंद लेने के बारे में लिखते हुए मेरे मन में अमीर खुसरो (1253 – 1325 AD) की मशहूर गज़ल आ रही थी।
लीजिए वह गज़ल यहाँ प्रस्तुत है।

ज़िहाल-ए मिस्कीं मकुन तगाफ़ुल,
दुराये नैना बनाये बतियां
कि ताब-ए-हिजरां नदारम ऎ जान,
न लेहो काहे लगाये छतियां ।
जरूरतमंद की हालत की कर न उपेक्षा आँख छुपा न बना बातें
वियोग सहन-शक्ति न है ए प्रिय क्यों न आ के सीने से लगाते।

शबां-ए-हिजरां दराज़ चूं ज़ुल्फ़
रोज़-ए-वस्लत चो उम्र कोताह,
सखि पिया को जो मैं न देखूं
तो कैसे काटूं अंधेरी रतियां ।
जुल्फ सी लाँबी विरह निशा और मिलन के दिन उम्र से छोटे
सखि री प्रिय को न देखूँ तो कैसे गुजारूँ ये अंधेरी रातें।
यकायक अज़ दिल, दोचश्म-ए-जादू
ब सद फ़रेबम बबुर्द तस्कीं,
किसे पड़ी है जो जा सुनावे
पियारे पी को हमारी बतियां ।
औचक ले उड़ीं तस्कीन दिल से सौ धोकों भरी दो जादू भरी आँखें
है गर्ज किसे पड़ी कि जा बताए प्रिय को मिरे हाल की बातें।
चो शम्‍अ सोज़ाँ, चो ज़र्रा हैराँ
ज़ मह्रे आँ मह बगश्तम आख़िर
न नींद नैना, ना अंग चैना
ना आप आवें, न भेजें पतियां ।
दीप सी जलूँ धूल सी बिखरूँ होके उसके करम से महरूम आखिर
न चैन पड़े कुछ न आए नींद, जो न खत आता न वो खुद आते।

बहक्क-ए-रोज़े- विसाल-ए-दिलबर
कि दाद मारा, फरेब खुसरौ
सपेत मनके, दोराये राखूं
जो जाये पाऊँ, पिया के खतियां ।
प्रिय मिलन दिवस का नाम ले के दिया है धोका खुसरो ने
जो जा पाऊँ प्रीतम्र-प्रासाद, सजाऊँ दिल धर के सफेद मुक्ते ।

पोस्ट एडिटर के चौखटे में गज़ल डालते हुए खयाल आया तो अभी अभी एक भावानुवाद कर हर शे’र के नीचे वह भी डाल दिया है। यह सीधा कीबोर्ड पर किया गया प्रयास है – न पुनरीक्षित किया गया है न ही मैंने स्वयं से पद्यानुवाद की अपेक्षा की है। शायद कुछ काम आए।

कविता की दुरुहता – एक विमर्श की आवश्यकता

किसी मित्र ने कल कहा कि उसे हिन्दी साहित्य में रुचि है और समय निकाल कर पढ़ता भी है पर “कविताएँ नहीं पढ़ता क्योंकि वह श्रमसाध्य होता है. समझने में मेहनत करनी पड़ती है.”
यह जो दुरुहता का “आरोप” है, वह मात्र पाठकीय संभ्रम है, रचनाकारों से पाठक-अपेक्षा की अभिव्यक्ति है, या फिर कविता के सहज गुणधर्म (गागर में सागर, चम्मच भर में चाँद या फिर कलशी में कलाश्‍निकोव भी भर लेने की क्षमता) के प्रति श्‍लाधा – यह एक विमर्श, एक बहस का मुद्दा हो सकता है।
फास्ट फूड – और एक अन्य मित्र के शब्दों में “disemvoweled SMSes” – के इस आपाधापी के दौर में पाठ्य साहित्य के प्रति प्रतिबद्धता ऐसे ही छीज चुकी है. बचे खुचे पाठक-वर्ग में भी थोड़ा समय, थोड़ी अटेंशन देकर कविता को समझने-आस्वादने के प्रति उत्पन्न हो रही अरुचि के कारण आसन्न संकट के प्रति हम यदि उदासीन रहे तो आज जो कुछ लोग सैकड़ों साल पहले के कवियों की रचनाओं का भी आनंद लेते हैं, उन्हीं लोगों की आगामी पीढ़ियों को चालीस वर्ष पूर्व के भी कवि अज्ञात होंगे.

Sunday, May 16, 2010

एक ग़ज़ल ग़ालिब के दीवान से

एक बहुत प्रिय मित्र ने कल इस चिट्ठे को देखा और फिर यह जहमत भी उठाई कि बाकायदा फोन कर अपनी सुविचारित टिप्पणी भी दी। आज उसी बात को सोचते हुए कुछ विचार आया और सोचा कि आपसे बाँटूं। छंद बद्ध अभिव्यक्तियाँ कई बार आबद्ध हो जाती हैं जबकि मुक्त छंद में अभिव्यक्ति पर कोई दबाव नहीं होता। अपनी पहली कविता "जन्मभूमि" में निराला ने कहा था "मुक्त बन्ध, घनानंद मुद मंगल कारी" और चार वर्ष बाद "प्रगल्भ प्रेम" में लिखा -- "अर्ध विकच इस हृदय-कमल में आ तू/ प्रिये, छोड़ कर बंधन मय छंदों की छोटी राह"।
खैर, यह भी सच है कि सिद्धहस्त कलमकार छंद के बंधनों में रहकर भी स्वच्छंद अभिव्यक्ति कर लेते हैं और ग़ालिब बड़े आराम से कहते हैं --
जिस बज़्म में तू नाज़ से गुफ़्तार में आवे
जाँ कालबद-ए-सूरत-ए-दीवार में आवे
साये की तरह साथ फिरें सर्व-ओ-सनोबर

तू इस क़द-ए-दिलकश से जो गुलज़ार में आवे
तय नाज़-ए-गिराँमायगी-ए-अश्क बजा है

जब लख़्त-ए-जिगर दीदा-ए-ख़ूँबार में आवे
दे मुझको शिकायत की इजाज़त कि सितमगर

कुछ तुझको मज़ा भी मेरे आज़ार में आवे
उस चश्म-ए-फ़ुसूँगर का अगर पाये इशारा

टूटी की तरह आईना गुफ़्तार में आवे
काँटों की ज़बाँ सूख गयी प्यास से या रब

इक आबलापा वादी-ए-पुरख़ार में आवे
मर जाऊँ न क्यों रश्क से जब वो तन-ए-नाज़ुक

आग़ोश-ए-ख़ाम-ए-हल्क़ा-ए-ज़ुन्नार में आवे
ग़ारतगर-ए-नामूस न हो गर हवस-ए-ज़र

क्यों शाहिद-ए-गुल बाग़ से बाज़ार में आवे
तब चाक-ए-गिरेबाँ का मज़ा है दिल-ए-नादाँ

जब इक नफ़स उलझा हुआ हर तार में आवे
आतिशकदा है सीना मेरा राज़-ए-निहाँ से

दे वाये अगर म'अरिज़-ए-इज़्हार में आवे
गंजीना-ए-म'अनी का तलिस्म उसको समझिये

जो लफ़्ज़ कि "ग़ालिब" मेरे अशआर में आवे

--- ग़ालिब की यह ग़ज़ल मैंने कविताकोश से ली है।
किन्तु अपने अधिक प्रिय अशआर को बोल्ड मैनें किया है।

Tuesday, May 4, 2010

मेरी कुछ कविताएँ

मेरी पाँच कविताएँ अभी कृत्या के मई अंक में आई हैं। यदि पढ़ना चाहें तो दो लिंक हाज़िर हैं :

http://www.kritya.in/0511/hn/poetry_at_our_time6.html पर चार कविताएँ हैं और

http://www.kritya.in/0511/hn/poetry_at_our_time.html

पर मेरी एक अन्य कविता के साथ ही साथ कई अन्य कवियों की कविताएँ भी।

कभी पढ़ें, अच्छी लगेंगी।