एक बहुत प्रिय मित्र ने कल इस चिट्ठे को देखा और फिर यह जहमत भी उठाई कि बाकायदा फोन कर अपनी सुविचारित टिप्पणी भी दी। आज उसी बात को सोचते हुए कुछ विचार आया और सोचा कि आपसे बाँटूं। छंद बद्ध अभिव्यक्तियाँ कई बार आबद्ध हो जाती हैं जबकि मुक्त छंद में अभिव्यक्ति पर कोई दबाव नहीं होता। अपनी पहली कविता "जन्मभूमि" में निराला ने कहा था "मुक्त बन्ध, घनानंद मुद मंगल कारी" और चार वर्ष बाद "प्रगल्भ प्रेम" में लिखा -- "अर्ध विकच इस हृदय-कमल में आ तू/ प्रिये, छोड़ कर बंधन मय छंदों की छोटी राह"।
खैर, यह भी सच है कि सिद्धहस्त कलमकार छंद के बंधनों में रहकर भी स्वच्छंद अभिव्यक्ति कर लेते हैं और ग़ालिब बड़े आराम से कहते हैं --
जिस बज़्म में तू नाज़ से गुफ़्तार में आवे
जाँ कालबद-ए-सूरत-ए-दीवार में आवे
साये की तरह साथ फिरें सर्व-ओ-सनोबर
तू इस क़द-ए-दिलकश से जो गुलज़ार में आवे
तय नाज़-ए-गिराँमायगी-ए-अश्क बजा है
जब लख़्त-ए-जिगर दीदा-ए-ख़ूँबार में आवे
दे मुझको शिकायत की इजाज़त कि सितमगर
कुछ तुझको मज़ा भी मेरे आज़ार में आवे
उस चश्म-ए-फ़ुसूँगर का अगर पाये इशारा
टूटी की तरह आईना गुफ़्तार में आवे
काँटों की ज़बाँ सूख गयी प्यास से या रब
इक आबलापा वादी-ए-पुरख़ार में आवे
मर जाऊँ न क्यों रश्क से जब वो तन-ए-नाज़ुक
आग़ोश-ए-ख़ाम-ए-हल्क़ा-ए-ज़ुन्नार में आवे
ग़ारतगर-ए-नामूस न हो गर हवस-ए-ज़र
क्यों शाहिद-ए-गुल बाग़ से बाज़ार में आवे
तब चाक-ए-गिरेबाँ का मज़ा है दिल-ए-नादाँ
जब इक नफ़स उलझा हुआ हर तार में आवे
आतिशकदा है सीना मेरा राज़-ए-निहाँ से
दे वाये अगर म'अरिज़-ए-इज़्हार में आवे
गंजीना-ए-म'अनी का तलिस्म उसको समझिये
जो लफ़्ज़ कि "ग़ालिब" मेरे अशआर में आवे
--- ग़ालिब की यह ग़ज़ल मैंने कविताकोश से ली है।
किन्तु अपने अधिक प्रिय अशआर को बोल्ड मैनें किया है।
Sunday, May 16, 2010
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2 comments:
wah! kya baat hai...likhte rahiye
bahut khub
दे मुझको शिकायत की इजाज़त कि सितमगर
कुछ तुझको मज़ा भी मेरे आज़ार में आवे
- kya khoob kaha hai. it made me remeber these lines:
बड़ी मेहनत से मेरी दुनिया लुटाई होगी
मेरी मुहब्बत की हस्ती भी मिटाई होगी
आ, तेरे पैरों में मलहम लगा दूं
मेंरे दिल को ठोकर मारने में, चोट तो आई होगी..
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