Tuesday, June 29, 2010

ग़ज़ल एक मेरी फिर

जो लोग उफनती मौज़ों से डर गए
वो सब के सब कनारों प’ ठहर गए ।

इस हिकारत से उन्हें पुकारा उसने
शर्मसार होके अश’आर मिरे मर गए ।

डोर दिल से उनकी बंधी थी यों कर
मोती तमाम पलकों पर ही ठहर गए ।

मंजिले-मकसूद थी सोहबत-ए-रहबर
इसीलिए कई लोग जानिबे-सफर गए ।

देखा बागवां को कैंची जो सीमी लिए
गुलाब सारे ही बाग के बिखर गए ।

दरिया को इतनी थी फ़िक्रे तश्‍नगी
सैलाब आया 'सुजीत' हम जिधर गए ।
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Wednesday, June 23, 2010

स्मृति थामती है बागडोर

हँसी-मज़ाक, किताबें, पत्र-पत्रिकाएँ,
कथा-कविता, कर्म, कृति, उद्योग – –
कितने घूँघटों में छुपकर रहती है
कितने जतन से, कितने-कितने साल
लजीली-सी उदासी :
चिर-यौवना, असूर्यम्पश्या, अनन्या, अर्धांगिनी ।

छू कर किसी कोने को हृदय के
बनाता है अति-उर्वर उसे कोई
अपने सरस स्पर्श से
और फिर बोता है बीज एक
अकेलेपन का,
साथ-साथ चलते-चलते ।

सिंच-सिंच कर पानियों से
बढ़ती उमर के तकाज़ों,
बच्चों की भीगती मसों,
और
स्थानीय समझौतों की अनिवार्यताओं के,
बढ़ती है पौध,
फूल-फल लगते हैं.
अकेले अंधेरे कमरों में कई बार
बरस-बरस जाती हैं आँखें भी,
और कुछ फल शाख से
गिरते हैं जड़ों के गिर्द
कि उगें और पौधें, फूलें- फलें ।

एक बीज बालाखिर बनता है
जंगल हरा-भरा, घना-घटाटोप
कि खो जाती है हृत्भू
एकाकीपन के इस असिपत्रवन की छाया में ।

और तब स्मृति थामती है बागडोर

छठवीं जून को छठी राजधानी के जनपथ पर
शाम के छः बजे चलते हुए
किसी भी रंग की लेगिंग्स में कसे पैर
दीखने लगते हैं अब
पहली जून को राजगढ़ में दिखी
पीले कुर्ते, कत्थई लेगिंग्स से आवृत छब-से,
और
खुली आँखों के सामने
चलने लगते हैं चित्र
पिछली पहली जून के;
घुसपैठ करने लगते हैं
हॉर्न की चीख भरे कानों में
पिछली पन्द्रहवीं फ़रवरी को सुने सुर
और अभी गुजरी चौदहवीं सितम्बर के नाद ।

स्मृति
कस कर खेंचती है लगाम
और छलछला उठता है रक्त
होठों की कोर में,
कि दूर-दूर तक दिखती नहीं
कोई उँगली उठती पोंछने जिसे ।

एकाकीत्व के वन में
युवा हो उठता है एक और पेड़ :
और-और असमर्थ हो उठती है
खोजने में
खोए इस मनुष्य को
जिंदगी ।

ओस बदल लेती है राह
रेत, कंटक, असिपत्र से परे
कहीं उस ओर
जिधर गुलाब अभी बाकी है ।
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Friday, June 11, 2010

वह तुम थी

चमकन लागीं पथराई अँखियाँ,
उभर आए गीत कंठ से थके पंछियों के,
छू गई हुलसती वनलता
और खिल उठे
फूल बदबदा कर बूढ़े गूलर में ।

झुक-झुक आए मेह,
उठ-उठ बढ़ी सरिता,
कि दूर क्षितिज के पास
ज्यों अकस्मात
छू गए रसाक्त अधर शैलसुता के
भरे-भरे भारी, प्यास से धूसर,
वारिधितनय के ओष्ठ-द्वय से ।

बंसोट छिन में बदली
बाँसुरियों के वन में,
नभ का संगीत बनाती-सी
भू के निःश्‍वास को ।

लाल हुए टेसू सारे,
बौरा गए सब आम,
ले भाग धनु वृद्ध इन्द्र का
उतरा नभ तल पर चपल युवा पुष्पशर ।

भर गई गंध,
कि ज्यों फूल उट्ठे कहीं
कोटि-कोटि कचनार ।

गुलमोहर ने भर दिए आँचल हवा के,
और लगा पसीजने चाँद उसकी शाखों में
छान रही हो प्रकृति जैसे
दूधिया ठंडई
पीली मलमल के कपड़े से
कि मिल सके सोम-श्‍लथ देवों को
मस्तियाँ कुछ जमीं से भी ।

यह पावस नहीं था न वसंत,
कवि-स्वप्न तो न ही था,
वह भी न था जिसे हिकारत से कहती हो तुम
“शेरो – शायरी” किसी सस्ते तुक्कड़ की ।

यह मात्र अनुभव था उस घड़ी एक भर का
जब तुम पहुँची थी वहाँ
जहाँ मैं ले जाया करता हूँ खुद को
तब, जब हो पाता हूँ
अकेला, अपने सिर्फ अपने, साथ ।
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