Sunday, March 20, 2011

लहू मिरा रायगाँ न था

फूल ने तितली से कुछ कहा न था
दरम्याँ अब बचा कोई मुद्दआ न था

झुका तो था वो हस्बे-मामूल ही
दह्‌न-ए-गुंचा आज नीम – वा न था

रंग ही रंग जमीं, गुलाल उफ़क में
होलियाना मगर इस शाम फ़ज़ा न था

यूँ गर्के-अब्र हो जाएगा बादे-कुर्बत
दह्र को मह पे इसका गुमाँ न था

उस आतशे खुशूशी की हयादारी वल्लाह
तपिश रूह-कुशाँ, मगर कोई धुआँ न था

रंग लिए परचम अपने जब हजारों ने
कहा बिस्मिल ने, लहू मिरा रायगाँ न था

वक्त मुंसिफ़ को बताएगा इक दिन जरूर
मायूस-‌ओ-नाचार था, सुजीत बदगुमां न था
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Saturday, March 19, 2011

होली की शुभकामनाएँ

होली का यह वसन्तोत्सव आपके जीवन - पथ को आपके चुने हुए रंगों के फूलों से सजाए –पथ के समस्त कण्टकों (और शुष्क मृणालों को भी)
होलिका के ही संग जलाए ।

Monday, March 14, 2011

किसी रोज दर्द मेरा भी तो उठान में आवे

इक बार कभी जिक्रे-खुदा तो मेरे दीवान में आवे
माहताब जो भूले से भी मेरे आसमान में आवे

बेकल तो रहते हैं हम उसकी सदा के लिए जरूर
इलाही कुछ लुत्फ उसे भी तो मेरे बयान में आवे

जाने है जमाना कि है शिफ़ा लम्स में उसके
हैफ़ किसी रोज दर्द मेरा भी तो उठान में आवे

बदहवास इतना है वो अपनी ही जुस्तजू में
कैसे छिन भर भी ये मुरीद उसके ध्यान में आवे

गुलाब चुन चुन जो रोज सजाता उसके लिए सुजीत
निशाँ इसके लहू का भी तो उस गुलदान में आवे
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Tuesday, March 8, 2011

मेरा साया सब्जाँ को रेत बना देता है


वह माहताब इतनी बुलन्दी पर बिस्तर रखता है
कभी खशो-खार-ओ-गुलाब नजर नहीं आता है

चलेगा कैसे वह गुँचा-पा मेरे साथ कदम भर भी
मेरा साया शबनमी सब्जाँ को रेत बना देता है

दर्द सिन्दूर का कहेगी किससे ये धरती की बेटी
राम परित्यागी, मनुहारी को जग रावण कहता है

इतना खोल दिया है खुद को उसके सामने हमने
इक वर्क अपना इस फटे बस्ते में धरते डरता है

हलक़ भींच के धोते हैं रुख अश्क से हम और
उसे शिकवा यह कि तू ताजा-दम न दिखता है

नफ़्स अपनी दबा रखे है सुजीत पा उसे फोन प
बेमुरव्वत अपनी गुफ्तगू को खत्म नहीं करता है

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