वह माहताब इतनी बुलन्दी पर बिस्तर रखता है
कभी खशो-खार-ओ-गुलाब नजर नहीं आता है
चलेगा कैसे वह गुँचा-पा मेरे साथ कदम भर भी
मेरा साया शबनमी सब्जाँ को रेत बना देता है
दर्द सिन्दूर का कहेगी किससे ये धरती की बेटी
राम परित्यागी, मनुहारी को जग रावण कहता है
इतना खोल दिया है खुद को उसके सामने हमने
इक वर्क अपना इस फटे बस्ते में धरते डरता है
हलक़ भींच के धोते हैं रुख अश्क से हम और
उसे शिकवा यह कि तू ताजा-दम न दिखता है
नफ़्स अपनी दबा रखे है सुजीत पा उसे फोन प
बेमुरव्वत अपनी गुफ्तगू को खत्म नहीं करता है
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