Monday, March 14, 2011

किसी रोज दर्द मेरा भी तो उठान में आवे

इक बार कभी जिक्रे-खुदा तो मेरे दीवान में आवे
माहताब जो भूले से भी मेरे आसमान में आवे

बेकल तो रहते हैं हम उसकी सदा के लिए जरूर
इलाही कुछ लुत्फ उसे भी तो मेरे बयान में आवे

जाने है जमाना कि है शिफ़ा लम्स में उसके
हैफ़ किसी रोज दर्द मेरा भी तो उठान में आवे

बदहवास इतना है वो अपनी ही जुस्तजू में
कैसे छिन भर भी ये मुरीद उसके ध्यान में आवे

गुलाब चुन चुन जो रोज सजाता उसके लिए सुजीत
निशाँ इसके लहू का भी तो उस गुलदान में आवे
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