Friday, December 31, 2010
नव वर्ष की शुभकामनाएँ
नव वर्ष सभी मित्रों को समस्त अभीष्ट प्राप्ति की सामर्थ्य तथा शुभ-मात्र की एषणा के विवेक से परिपूर्ण रखे.
Thursday, December 30, 2010
एक मुद्दत से आँख रोई नहीं -- परवीन शाकिर की गज़ल
जिन्से-नायाब हो गई शायद
अपने घर की तरह वो लड़की भी
नज्रे- सैलाब हो गई शायद
तुझ को सोचूँ तो रोशनी देखूँ ,
याद, महताब हो गई शायद
एक मुद्दत से आँख रोई नहीं,
झील पायाब हो गई शायद
हिज्र के पानियों में इश्क की नाव,
कहीं गर्क़ाब हो गई शायद
चंद लोगों की दस्तरस में है
ज़ीस्त किमख़्वाब हो गई शायद
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Sunday, December 19, 2010
तीन सतरें
सरदर्दी हर गाम हुई
बरजोरी सरे-शाम हुई
बेखौफ़ रहे ताकतों वाले
और मुन्नी बदनाम हुई।
(दो)
आ गई चीजें इतनी लगाने की
कि नींद हराम हुई जमाने की
सौदागर सपनों का बाजार बना
पर शीला किसी के हाथ न आने की।
(तीन)
उसके होंठ तले जो छोटा तिल है
बंदे का मुआ वही तो कातिल है
वह सुनारों संग घूमती रही और
ये गाएँ, फूल नहीं मेरा दिल है।
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Monday, November 29, 2010
फोन किसी का सुनते हुए
रुख्सत याद दिलाया है, फोन किसी का सुनते हुए।
जिरह-बख्तर बेकद्री के, शम्शीरे-बदजुबानी लिए
शहंशाह-फ़हम हूँ, गैर की बस्ती में गुजरते हुए।
परख-परख के राह, फूंक-फूंक कदम जो रखते हैं
नावीनगी छाती है उन्हीं पर अक्सर फिसलते हुए।
जोर तमाम लगाया बगूलों ने गिराने में जिसे
मुअत्तर हवा को कर गया वह गुल संभलते हुए।
तनाबकुशाई न की रात भर असीरे-आरिजे कंवल ने
पासे-शिगाफ़े-गुल ने रोका उसे मुहर-ब-लब करते हुए।
यह नहीं हरगिज़ कि नामालूम हकी़कते-दाम उसे
माइल-ब-मुनाज़ात-ए-माहीगीर है वह फंसते हुए।
होशमंद है बहुत सुजीत आमदे-शफ़क़ तक हर रोज
ज़ाँ-ब-लबी आ जाती है बस खयाले-महवश आते हुए।
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इस रंग के पदों पर माउस रखने से आप उनके अर्थ देख सकते हैं |
यह व्यवस्था करने की सलाह देने वाले कवि मित्र श्री अजीत को धन्यवाद |
Wednesday, October 20, 2010
ये ज़माना यूसुफ़ को पत्थर बना देता है
कभी कतरे को वह गुहर बना देता है ।
तासीर-ए-मेहर से अमीरे-शहर अक्सर
तुख्म-ए-गुल को शह-समर बना देता है ।
मुहब्बत की चिता का धुआँ कम्बख्त
शीरीं लबों को जाम-ए-जहर बना देता है ।
रब्त रसूखदारों से रखा करिए आप
ये बेहरूफ़ को भी सुखनवर बना देता है ।
इस्तेमाल करिए जो ज़ीने को जीने में
वह पिद्दी को भी नामवर बना देता है ।
मान लीजिए ये मशवरा सुजीत का वरना
ये ज़माना यूसुफ़ को पत्थर बना देता है ।
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Sunday, October 17, 2010
विकास
एकमात्र गवाह,
विगत का स्मृतिचिह्न
बूढ़ा पीपल यह,
बड़ा जिद्दी, बड़े जीवट वाला है,
कि खड़ा है जबर्दस्ती
बीचोबीच सालों साल से,
चौतरफा खड़ी चिमनियाँ
वार करती हैं दिन-रात
और यह मरता ही नहीं.
यह तो और हुमक उठता है हर बरसात में.
और कारखाने की चारदीवारी
फैलती जाती है हर साल,
इसी पेड़ के वितान की तरह,
सिमटती जाती हैं
आश्रयस्थलियाँ
मक्कों की बालियों की.
दूब भाग रही थोड़ी जगह खोजने
लॉनों की तरफ,
नदियाँ
जल ले आती हैं
और मल ले जाती हैं,
पहाड़ छीजते हैं चिंता में
कि कम न पड़े गिट्टियों की सप्लाई.
और यह पीपल,
जिए जाता है
अतीत से दग्द्ध पर भविष्य से निश्चिंत.
किंतु हुआ है उदास पहली बार आज,
कि
घोंसले में चिड़ा कह रहा था चिड़ी को
“चलें कहीं और,
यहाँ विकास बहुत हो गया है.”
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परी
उस चीकट लड़की के लिए :
चौराहे पर रुकी बड़ी गाड़ी
और उसमें बैठी छुटकी मेमसाब ने
पकड़ा दिया
खिड़की के पास खड़ी उसे
नीला पैकेट चाकलेट का.
बड़े साहब मेमसाहब को बोले
“क्या उजबक बेटी है तेरी”
और वह सोच ही रही थी
बड़े लोग परी को उजबक कहते हों शायद,
कि
बत्ती हरी हो गई.
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रक्त
अति महत्वपूर्ण
निर्विवाद घटक है
विकास का,
कि
रूपांतर परियोजनाओं का
हरित-भू से लोहित-भू में
होता है
तल पर अपार रक्तपात के ही बाद
और
जरूरी होता है
रक्तिम रंग
करने के लिए प्रदान
विनिवेश योग्यता
खनन क्षेत्रों को भी.
धुलाते हैं लोग कई बार
व्यवस्थाओं की कालिमा भी
लाल पानियों से
हरित आखेटों के.
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Thursday, October 14, 2010
सामग्री प्रापण रणनीति (Procurement as a driver of Competitive Advantage)
Wednesday, October 13, 2010
ई आर पी (Enterprise Resource Planning : Management Issues)
कार्यस्थलों पर अध्यात्मिकता (Spiritualism at Workplace)
कार्यस्थलों पर महिलाएँ
मानव संसाधन विकास (Energizing business through HRD)
अभिप्रेरण (Motivation)
प्रबंधकों की भूमिका (Role Expectations from Managers)
Thursday, October 7, 2010
"रचनात्मकता एवं नव-प्रवर्तन" (Creativity and Innovation) पर आलेख
Wednesday, October 6, 2010
"झारखंड और औद्योगिक विकास" पर आलेख
Saturday, September 4, 2010
कार्य-जीवन संतुलन (Work-Life Balance) पर हिन्दी आलेख
Sunday, August 29, 2010
मेरे लेख अब scribd.com पर भी उपलब्ध
Friday, August 27, 2010
ट्रांजेक्शनल एनालिसिस एवं स्क्रिप्ट थ्योरी (TA and Script Theory) पर आलेख
Wednesday, August 25, 2010
एक शिशु प्रलाप : In Retrospect
तो, प्रथम पाठक की टिप्पणी को स्नेह-अभिव्यक्ति समझ केवल आभार प्रकट किया जा सकता है.
क्या आप कोई राय देंगे?
In Retrospect
A few trades’ jack
now in my fifties
do sometimes look back
how I wished to master all
while floating in twenties.
Went all into dust
which I imagined at crosses
to be the sculptured bust
got left only with the flame
whatever caressed reduced to ashes.
Was just chips and gravel
when the one who dreamt
took from me a red jewel
and told me over phone
“we talked a lot till you went.”
Little did the fairy know
I was really really spent
like arrow slipped from bow :
and poseessed never the ruby
she thought I had sent.
Over time every sump dries
no fingers approach my cheek
no tears roll from my eyes
sleeps the world and I retrospect
how had I been terribly meek.
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Monday, August 23, 2010
वह कवि की तुम
नाटोर कोथाय,
के वनलता,
सुश्री सेनेर की कथा?
सोचा और कहा जीवनानंद ने हौले से
“कविता का मैं हो
मैं कवि का भी,
जरूरी तो नहीं.”
सुन ली चुपके से उसने
यह वार्ता हमारी,
और पूछा:
“कवि मेरे, वह जो आती है
वह कि तुम बन कर,
तुम्हारी तुकबंदियों में:
वह मैं हूँ क्या?”
कैसे, किसे बता पाए कौन,
झड़ती पँखुड़ियाँ देसी गुलाब की
ढोतीं नहीं अंगुलियों के निशान,
केश-जल में सद्य:स्नाता के
नहीं लिखा होता नदी का नाम,
और
अंगीकार नहीं होता मुहताज
किसी इकरारनामे का,
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जिसे आप गिनते थे आशना, जिसे आप कहते थे बावफा
आज मन में आ रहा है कि मोमिन की यह गज़ल भी आपके सामने रखूँ.
वो जो हम में तुम में करार था, तुम्हें याद हो के न याद हो
वही यानी वादा निबाह का, तुम्हें याद हो के न याद हो.
वो नये गिले, वो शिकायतें, वो मज़े-मज़े की हिकायतें
वो हरेक बात पे रूठना, तुम्हें याद हो के न याद हो
कोई बात ऐसी अगर हुई, जो तुम्हारे जी को बुरी लगी
तो बयां से पहले ही भूलना, तुम्हें याद हो के न याद हो
सुनो ज़िक्र है कई साल का, कोई वादा मुझसे था आपका
वो निबाहने का तो ज़िक्र क्या, तुम्हें याद हो के न याद हो
कभी हम में तुम में भी चाह थी, कभी हमसे तुमसे भी राह थी
कभी हम भी तुम भी थे आशना, तुम्हें याद हो के न याद हो
हुए इत्तेफाक से गर बहम , वो वफ़ा जताने को दम-ब-दम
गिल- ए- मलामते-अक़रबा, तुम्हें याद हो के न याद हो
कभी बैठे सब हैं जो रू-ब-रू, तो इशारतों ही से गुफ्तुगू
वो बयान शौक़ का बरमाला, तुम्हें याद हो के न याद हो
वो बिगाड़ना वस्ल की रात का, वो न मानना किसी बात का
वो नहीं नहीं की हरेक अदा, तुम्हें याद हो के न याद हो
जिसे आप गिनते थे आशना, जिसे आप कहते थे बावफा
मैं वही हूँ मोमिने-मुब्तला तुम्हें याद हो के न याद हो
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आज ऐसे मिला है वो, कभी पहले जैसे मिला न हो
आज खयाल आ रहा है कि बशीर बद्र की यह गज़ल आप सबसे शेयर करूँ।
अब याद नहीं आ रहा कि कहाँ से मिली थी यह जब इसे अपने कम्प्यूटर में रख लिया था।
देखिए कैसी लगती है:
कभी यूं भी आ मेरी आंख में, कि मेरी नजर को खबर न हो
मुझे एक रात नवाज दे, मगर उसके बाद सहर न हो
वो बड़ा रहीमो करीम है, मुझे ये सिफ़त भी अता करे
तुझे भूलने की दुआ करूं तो मेरी दुआ में असर न हो
मेरे बाज़ुऔं में थकी थकी, अभी महवे ख्वाब है चांदनी
ना उठे सितारों की पालकी, अभी आहटों का गुजर न हो
ये ग़ज़ल है जैसे हिरन की आंखों में पिछली रात की चांदनी
ना बुझे ख़राबे की रौशनी, कभी बेचिराग़ ये घर न हो
वो फ़िराक़ हो या विसाल हो, तेरी याद महकेगी एक दिन
वो गुलाब बन के खिलेगा क्या, जो चिराग़ बन के जला न हो
कभी धूप दे, कभी बदलियां, दिलोजान से दोनो क़ुबूल हैं
मगर उस नगर में ना कैद कर, जहां ज़िन्दगी का हवा न हो
कभी यूं मिलें कोई मसलेहत, कोई खौफ़ दिल में ज़रा न हो
मुझे अपनी कोई ख़बर ना हो, तुझे अपना कोई पता न हो
वो हजार बागों का बाग हो, तेरी बरकतो की बहार से
जहां कोई शाख़ हरी ना हो, जहां कोई फूल खिला न हो
तेरे इख़्तियार में क्या नहीं, मुझे इस तरह से नवाज़ दे
यूं दुआयें मेरी क़ुबूल हों, मेरे दिल में कोई दुआ न हो
कभी हम भी इस के क़रीब थे, दिलो जान से बढ कर अज़ीज़ थे
मगर आज ऐसे मिला है वो, कभी पहले जैसे मिला न हो
कभी दिन की धूप में झूम कर, कभी शब के फ़ूल को चूम कर
यूं ही साथ साथ चले सदा, कभी खत्म अपना सफ़र न हो
मेरे पास मेरे हबीब आ, जरा और दिल के क़रीब आ
तुझे धडकनों में बसा लूं मैं, कि बिछड़ने का कभी डर न हो.
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Tuesday, June 29, 2010
ग़ज़ल एक मेरी फिर
वो सब के सब कनारों प’ ठहर गए ।
इस हिकारत से उन्हें पुकारा उसने
शर्मसार होके अश’आर मिरे मर गए ।
डोर दिल से उनकी बंधी थी यों कर
मोती तमाम पलकों पर ही ठहर गए ।
मंजिले-मकसूद थी सोहबत-ए-रहबर
इसीलिए कई लोग जानिबे-सफर गए ।
देखा बागवां को कैंची जो सीमी लिए
गुलाब सारे ही बाग के बिखर गए ।
दरिया को इतनी थी फ़िक्रे तश्नगी
सैलाब आया 'सुजीत' हम जिधर गए ।
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Wednesday, June 23, 2010
स्मृति थामती है बागडोर
कथा-कविता, कर्म, कृति, उद्योग – –
कितने घूँघटों में छुपकर रहती है
कितने जतन से, कितने-कितने साल
लजीली-सी उदासी :
चिर-यौवना, असूर्यम्पश्या, अनन्या, अर्धांगिनी ।
छू कर किसी कोने को हृदय के
बनाता है अति-उर्वर उसे कोई
अपने सरस स्पर्श से
और फिर बोता है बीज एक
अकेलेपन का,
साथ-साथ चलते-चलते ।
सिंच-सिंच कर पानियों से
बढ़ती उमर के तकाज़ों,
बच्चों की भीगती मसों,
और
स्थानीय समझौतों की अनिवार्यताओं के,
बढ़ती है पौध,
फूल-फल लगते हैं.
अकेले अंधेरे कमरों में कई बार
बरस-बरस जाती हैं आँखें भी,
और कुछ फल शाख से
गिरते हैं जड़ों के गिर्द
कि उगें और पौधें, फूलें- फलें ।
एक बीज बालाखिर बनता है
जंगल हरा-भरा, घना-घटाटोप
कि खो जाती है हृत्भू
एकाकीपन के इस असिपत्रवन की छाया में ।
और तब स्मृति थामती है बागडोर ।
छठवीं जून को छठी राजधानी के जनपथ पर
शाम के छः बजे चलते हुए
किसी भी रंग की लेगिंग्स में कसे पैर
दीखने लगते हैं अब
पहली जून को राजगढ़ में दिखी
पीले कुर्ते, कत्थई लेगिंग्स से आवृत छब-से,
और
खुली आँखों के सामने
चलने लगते हैं चित्र
पिछली पहली जून के;
घुसपैठ करने लगते हैं
हॉर्न की चीख भरे कानों में
पिछली पन्द्रहवीं फ़रवरी को सुने सुर
और अभी गुजरी चौदहवीं सितम्बर के नाद ।
स्मृति
कस कर खेंचती है लगाम
और छलछला उठता है रक्त
होठों की कोर में,
कि दूर-दूर तक दिखती नहीं
कोई उँगली उठती पोंछने जिसे ।
एकाकीत्व के वन में
युवा हो उठता है एक और पेड़ :
और-और असमर्थ हो उठती है
खोजने में
खोए इस मनुष्य को
जिंदगी ।
ओस बदल लेती है राह
रेत, कंटक, असिपत्र से परे
कहीं उस ओर
जिधर गुलाब अभी बाकी है ।
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Friday, June 11, 2010
वह तुम थी
उभर आए गीत कंठ से थके पंछियों के,
छू गई हुलसती वनलता
और खिल उठे
फूल बदबदा कर बूढ़े गूलर में ।
झुक-झुक आए मेह,
उठ-उठ बढ़ी सरिता,
कि दूर क्षितिज के पास
ज्यों अकस्मात
छू गए रसाक्त अधर शैलसुता के
भरे-भरे भारी, प्यास से धूसर,
वारिधितनय के ओष्ठ-द्वय से ।
बंसोट छिन में बदली
बाँसुरियों के वन में,
नभ का संगीत बनाती-सी
भू के निःश्वास को ।
लाल हुए टेसू सारे,
बौरा गए सब आम,
ले भाग धनु वृद्ध इन्द्र का
उतरा नभ तल पर चपल युवा पुष्पशर ।
भर गई गंध,
कि ज्यों फूल उट्ठे कहीं
कोटि-कोटि कचनार ।
गुलमोहर ने भर दिए आँचल हवा के,
और लगा पसीजने चाँद उसकी शाखों में
छान रही हो प्रकृति जैसे
दूधिया ठंडई
पीली मलमल के कपड़े से
कि मिल सके सोम-श्लथ देवों को
मस्तियाँ कुछ जमीं से भी ।
यह पावस नहीं था न वसंत,
कवि-स्वप्न तो न ही था,
वह भी न था जिसे हिकारत से कहती हो तुम
“शेरो – शायरी” किसी सस्ते तुक्कड़ की ।
यह मात्र अनुभव था उस घड़ी एक भर का
जब तुम पहुँची थी वहाँ
जहाँ मैं ले जाया करता हूँ खुद को
तब, जब हो पाता हूँ
अकेला, अपने सिर्फ अपने, साथ ।
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Sunday, May 23, 2010
कलीम आजिज़ की गज़ल
मुझ से ही अमीरों की तरह बात करो हो
दिन एक सितम एक सितम रात करो हो
कि दोस्त हो, दुश्मन को भी तुम मात करो हो
हम खाक-नशीं, तुम सितम आरा ए सरे- बाम
पास आके मिलो, दूर से क्या बात करो हो
हमको जो मिला है वो तुम्हीं से तो मिला है
हम, और भुला दें तुम्हें, क्या बात करो हो
यूँ तो मुझे मुँह फेर के देखो भी नहीं हो
जब वक्त पड़े है तो मदारात करो हो
दामन पे कोई छींट, न खंजर पे कोई दाग
तुम कत्ल करो हो कि करामात करो हो
बकने भी दो आजिज़ को जो बोले है बके है
दीवाना है, दीवाने से क्या बात करो हो
अमीर खुसरो की एक मशहूर गज़ल
लीजिए वह गज़ल यहाँ प्रस्तुत है।
ज़िहाल-ए मिस्कीं मकुन तगाफ़ुल,
दुराये नैना बनाये बतियां
कि ताब-ए-हिजरां नदारम ऎ जान,
न लेहो काहे लगाये छतियां ।
जरूरतमंद की हालत की कर न उपेक्षा आँख छुपा न बना बातें
वियोग सहन-शक्ति न है ए प्रिय क्यों न आ के सीने से लगाते।
शबां-ए-हिजरां दराज़ चूं ज़ुल्फ़
रोज़-ए-वस्लत चो उम्र कोताह,
सखि पिया को जो मैं न देखूं
तो कैसे काटूं अंधेरी रतियां ।
जुल्फ सी लाँबी विरह निशा और मिलन के दिन उम्र से छोटे
सखि री प्रिय को न देखूँ तो कैसे गुजारूँ ये अंधेरी रातें।
यकायक अज़ दिल, दोचश्म-ए-जादू
ब सद फ़रेबम बबुर्द तस्कीं,
किसे पड़ी है जो जा सुनावे
पियारे पी को हमारी बतियां ।
औचक ले उड़ीं तस्कीन दिल से सौ धोकों भरी दो जादू भरी आँखें
है गर्ज किसे पड़ी कि जा बताए प्रिय को मिरे हाल की बातें।
चो शम्अ सोज़ाँ, चो ज़र्रा हैराँ
ज़ मह्रे आँ मह बगश्तम आख़िर
न नींद नैना, ना अंग चैना
ना आप आवें, न भेजें पतियां ।
दीप सी जलूँ धूल सी बिखरूँ होके उसके करम से महरूम आखिर
न चैन पड़े कुछ न आए नींद, जो न खत आता न वो खुद आते।
बहक्क-ए-रोज़े- विसाल-ए-दिलबर
कि दाद मारा, फरेब खुसरौ
सपेत मनके, दोराये राखूं
जो जाये पाऊँ, पिया के खतियां ।
प्रिय मिलन दिवस का नाम ले के दिया है धोका खुसरो ने
जो जा पाऊँ प्रीतम्र-प्रासाद, सजाऊँ दिल धर के सफेद मुक्ते ।
पोस्ट एडिटर के चौखटे में गज़ल डालते हुए खयाल आया तो अभी अभी एक भावानुवाद कर हर शे’र के नीचे वह भी डाल दिया है। यह सीधा कीबोर्ड पर किया गया प्रयास है – न पुनरीक्षित किया गया है न ही मैंने स्वयं से पद्यानुवाद की अपेक्षा की है। शायद कुछ काम आए।
कविता की दुरुहता – एक विमर्श की आवश्यकता
यह जो दुरुहता का “आरोप” है, वह मात्र पाठकीय संभ्रम है, रचनाकारों से पाठक-अपेक्षा की अभिव्यक्ति है, या फिर कविता के सहज गुणधर्म (गागर में सागर, चम्मच भर में चाँद या फिर कलशी में कलाश्निकोव भी भर लेने की क्षमता) के प्रति श्लाधा – यह एक विमर्श, एक बहस का मुद्दा हो सकता है।
फास्ट फूड – और एक अन्य मित्र के शब्दों में “disemvoweled SMSes” – के इस आपाधापी के दौर में पाठ्य साहित्य के प्रति प्रतिबद्धता ऐसे ही छीज चुकी है. बचे खुचे पाठक-वर्ग में भी थोड़ा समय, थोड़ी अटेंशन देकर कविता को समझने-आस्वादने के प्रति उत्पन्न हो रही अरुचि के कारण आसन्न संकट के प्रति हम यदि उदासीन रहे तो आज जो कुछ लोग सैकड़ों साल पहले के कवियों की रचनाओं का भी आनंद लेते हैं, उन्हीं लोगों की आगामी पीढ़ियों को चालीस वर्ष पूर्व के भी कवि अज्ञात होंगे.
Sunday, May 16, 2010
एक ग़ज़ल ग़ालिब के दीवान से
खैर, यह भी सच है कि सिद्धहस्त कलमकार छंद के बंधनों में रहकर भी स्वच्छंद अभिव्यक्ति कर लेते हैं और ग़ालिब बड़े आराम से कहते हैं --
जिस बज़्म में तू नाज़ से गुफ़्तार में आवे
जाँ कालबद-ए-सूरत-ए-दीवार में आवे
साये की तरह साथ फिरें सर्व-ओ-सनोबर
तू इस क़द-ए-दिलकश से जो गुलज़ार में आवे
तय नाज़-ए-गिराँमायगी-ए-अश्क बजा है
जब लख़्त-ए-जिगर दीदा-ए-ख़ूँबार में आवे
दे मुझको शिकायत की इजाज़त कि सितमगर
कुछ तुझको मज़ा भी मेरे आज़ार में आवे
उस चश्म-ए-फ़ुसूँगर का अगर पाये इशारा
टूटी की तरह आईना गुफ़्तार में आवे
काँटों की ज़बाँ सूख गयी प्यास से या रब
इक आबलापा वादी-ए-पुरख़ार में आवे
मर जाऊँ न क्यों रश्क से जब वो तन-ए-नाज़ुक
आग़ोश-ए-ख़ाम-ए-हल्क़ा-ए-ज़ुन्नार में आवे
ग़ारतगर-ए-नामूस न हो गर हवस-ए-ज़र
क्यों शाहिद-ए-गुल बाग़ से बाज़ार में आवे
तब चाक-ए-गिरेबाँ का मज़ा है दिल-ए-नादाँ
जब इक नफ़स उलझा हुआ हर तार में आवे
आतिशकदा है सीना मेरा राज़-ए-निहाँ से
दे वाये अगर म'अरिज़-ए-इज़्हार में आवे
गंजीना-ए-म'अनी का तलिस्म उसको समझिये
जो लफ़्ज़ कि "ग़ालिब" मेरे अशआर में आवे
--- ग़ालिब की यह ग़ज़ल मैंने कविताकोश से ली है।
किन्तु अपने अधिक प्रिय अशआर को बोल्ड मैनें किया है।
Tuesday, May 4, 2010
मेरी कुछ कविताएँ
http://www.kritya.in/0511/hn/poetry_at_our_time6.html पर चार कविताएँ हैं और
http://www.kritya.in/0511/hn/poetry_at_our_time.html
पर मेरी एक अन्य कविता के साथ ही साथ कई अन्य कवियों की कविताएँ भी।
कभी पढ़ें, अच्छी लगेंगी।
Saturday, April 10, 2010
एक और ग़ज़ल
हुस्ने-सुखन था अब जिसकी जुबाँ पे ताला है.
दरिया है बेकल अपने समन्दर के लिए
बशर है कि उसके इश्क में मतवाला है.
एड़ियाँ मिलेंगी उसे अह्सान की तरह
मौलसिरी सा जो कि खिलने वाला है.
माहताब है बेसुध अब्र के आगोश में
सहन हमारे में अश्क का उजाला है.
पूछ ले न कहीं चाँद दमकने का राज़
साँझ ढलते कमल सिमटने वाला है.
चलके शमए-दिल को आतिश-फिशां कर लूं
कि बरसरे सैर अब मेरा उजाला है.
धुल के और निखरेगा उनका सलोनापन सुजीत
तेरी आँख में अभी जो जल भरने वाला है.
Thursday, April 8, 2010
एक कविता -- इक घूँट भर आवाज की प्यास
मिस हो न जाए तुम्हारी काल,
डोलता रहा हूँ
मैं मोबाइल को मुट्ठी में लिए हुए,
कि लगता है वक्त काल लेने में
जेब से निकालकर
और कहीं
हो न जाएँ खामोश
घंटियाँ थक कर.
आग उगलती धूप के इस मौसम में
जीता रहा हूँ मैं
पीकर ओस कानों से,
कि
इक घूँट भर आवाज
हो कम तृप्ति के लिए
किंतु
करती है शीतल प्राण को,
देती है ललक कि जियूँ और
कि देखूँ फिर एक सूरज
कि करूँ फिर एक प्रतीक्षा
अगली घूँट के अवदान की ;
इस खटाक खामोशी के बाद.
आज जब मेरे मोबाइल का नलका
गर्म पानियों के ही गिलास भरता रहा :
मेरी शुभांशा ने ढकेला परे
तमाम दुश्चिंताओं और आशंकाओं को
और दी मुझे सांत्वना कि
सरू सनोवर के देवोपवन की
ठंडी ठिठुरन भरे तेरे देस में
बस कि जमी रह गई होगी यूँ ही
मेरे हिस्से की ओस
सारा दिन तेरे होठों के गुलाब पर।
पिपासाकुल मैं
लेटा हूँ चिपटा कर इस मोबाइल को,
कि कह रहे हैं फ़ैज़ कानों में मेरे
“जो नहीं बादा-ओ-सागर तो हा-ओ-हू ही सही”।
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Thursday, March 18, 2010
हिंदी ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित
Saturday, March 6, 2010
एक ग़ज़ल फिर
मैं बस अपनी गज़लें यहाँ पोस्ट कर रहा हूँ इन दिनों, कोई पढ़े शायद और बताए कि क्या केवल अपनी ग़ज़लें पोस्ट करना ठीक है या ... और शायद कोई यह भी बताए कि ये गज़लें ठीक हैं या ...
शायद अच्छा शब्द है । बड़ा सुकून देता है सोचना कि जो नहीं हो रहा है और इप्सित है वह शायद कभी हो ।
खैर, ग़ज़ल हाज़िर है:
हो उठा है बहुत अंधकार शहर में
अपेक्षा हुई है अब अधिकार शहर में
तुम भावना आराधना की बात करो यहाँ
सत्य तो है अब मात्र व्यापार शहर में
हर सरिता को बाँधते हैं तटबंध में वे
असीमित एषणा हो रही साकार शहर में
मैत्री, स्नेह, अनुराग की ऋतु नहीं अब
लालित्य का है अंतिम संस्कार शहर में
सुजीत किधर देखोगे कि धुआँ न मिले
अग्नि का अब नहीं पारावार शहर में
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Friday, March 5, 2010
अग्नि अग्नि में भी बड़ा विचित्र अंतर होता है
कभी यह ग़ज़ल लिखी थी। आप पढेंगे?
ऐसा ही तो इस धरा पर अक्सर होता है
हर हृदय की तरफ तना एक नश्तर होता है
जिधर कहीं किसी कुँज में बैठे हों दो जन
आ रहा कहीं से उधर ही कोई पत्थर होता है
सजे कागजों पर सधी लिखाई एक भरम है मात्र
जहर बुझा इन पत्रों का तो हर अक्षर होता है
प्रश्न वही मथा-निचोड़ा हृदयों को करते हैं मित्र
निश्चित नहीं जिनका कोई भी उत्तर होता है
यूँ भीष्म भी बहुत तो पाए नहीं जाते किन्तु
चुभते शरों का ही सदा उनका अंतिम बिस्तर होता है
वह आरती सी जलती है तुम चिता सा सुलगते हो
अग्नि अग्नि में भी बड़ा विचित्र अंतर होता है
अपराध तो सुजीत हो ही जाया करते हैं
प्रायश्चित कि दंड का कहाँ सदा अवसर होता है
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Sunday, February 28, 2010
होली की हार्दिक शुभकामनाएं
सभी मित्रों को होली की हार्दिक शुभकामनाएं.
रंग-पर्व हमारे और हमारे प्रियजनों के जीवन में प्रेम, करुणा, सुख, शान्ति, समृद्धि, सफलता, उत्कर्ष के सप्त वर्ण इन्द्रधनुष का उन्मेष करे और हमें अन्यों के जीवन में रंग भर सकने की क्षमता, इच्छा, तथा अभिप्रेरणा दे.
Friday, February 26, 2010
एक ग़ज़ल, शायद पसंद आए
मेरी ही एक ग़ज़ल और पढ़िए।
किसी को मेरा किस्सा तुम अगर कहना
रहे ध्यान कि मत हँस कर कहना
फेंकती दृष्टि संसार की जिसे सर पर मेरे
प्राणाधार मेरे, उसे ही तुम पत्थर कहना
प्रिय जिसको दृष्टि से अपनी गिरा फेंके
अयि भाषा-प्राण, तू उसे ही बेघर कहना
शोणित सिक्त शूलों से जो दिखे बना सा
हर उस पगडंडिका को तू मेरी डगर कहना
सूखेगा न कभी सुजीत की आँख का खारा पानी
है तेरी दृक्नीलिमा भरी, इसे तू समंदर कहना
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Wednesday, February 24, 2010
एक हिंदी ग़ज़ल
यह प्रकरण नहीं है किसी अभिव्यक्ति का
विरह नहीं है मूल्य संगत अनुरक्ति का
हर पुष्प हो स्वीकार्य ही आराध्य को क्यों
होता है कहाँ बंधनकारी नियम भक्ति का
प्रतिदान न सही, उपेक्षा भी तो न करे प्रिय
यह आग्रह तो है सदा किन्तु हर व्यक्ति का
इस द्विधा का एक समाधान मिले कहाँ
अपेक्षा संग त्याग चले, पथ यह आसक्ति का
बंधन अमित हैं सुजीत आराधना के आभरण पर
कौन करे क्या उपाय इसकी मुक्ति का
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Monday, February 22, 2010
दवाओं के लेबल पर यह आई यू क्या होता है
वजन घटाने के लिए टहलना -- हृदय-गति का लक्ष्य प्राप्त करना आवश्यक
किसी व्यक्ति के लिए वांछित हृदय-गति उसके लिंग और अवस्था पर निर्भर होती है जिसकी गणना करने केलिए कुछ सूत्र हैं। उन सूत्रों की जानकारी में यदि आपकी रूचि हो तो अंगरेजी में लिखा मेरा एक छोटा सा आलेख यहाँ उपलब्ध है। इसे scribd.com पर पढ़ने के लिए यहाँ राईट क्लिक कर नई विंडो में खोल सकते हैं।
Saturday, February 20, 2010
एक ग़ज़ल मेरी भी पढ़िए
एक अपनी ग़ज़ल आपकी नज़र कर रहा हूँ। अच्छी लगे तो बताकर कृपया हौसला अफजाई करें, और अगर इसे बेहतर बनाने के ख़याल से कुछ तरतीम करने की जहमत उठाएं और भी कृतज्ञ होऊँगा :
हमसफ़र उसका कौन कभी भी रह पाता है
दस दस कदम पर जो रस्ता बदल जाता है।
खारे - गुल, दागे - माहताब, ताबे-खुर्शीद
खुश हो कैसे, यही जिसको नजर आता है।
लुकमान क्या छुडाए उसका आधाशीशी
हर अफकार को जो अहबाब से छुपाता है ।
फूल तो झड न पाएँगे उसकी छाती पर
जो दरिया सदा कनारों में आग लगाता है।
अलिफ़ से हे तक सीधे पढने वालो
बीच से बांचना भी बवक्त काम आता है।
शदीद अकीदत से जो बाम पे धरा जाए
वो दिया तूफानों को राह दिखाता है।
अल्लाह ही हाफिज उसके मुस्तकबिल का
सम्रे इमरोज जो किर्मे दीरोज को खिलाता है।
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सुना है -- अहमद फ़राज़ की रचना
सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं
सो उस के शहर में कुछ दिन ठहर के देखते हैं .
सुना है रब्त है उस को ख़राब हालों से
सो अपने आप को बर्बाद करके देखते हैं .
सुना है दर्द की गाहक है चश्म-ए-नाज़ुक उस की
सो हम भी उस की गली से गुज़र कर देखते हैं .
सुना है उस को भी है शेर-ओ-शायरी से शगफ़
सो हम भी मोजज़े अपने हुनर के देखते हैं .
सुना है बोले तो बातों से फूल झरते हैं
ये बात है तो चलो बात कर के देखते हैं .
सुना है रात उसे चाँद ताकता रहता है
सितारे बाम-ए-फलक से उतर के देखते हैं .
सुना है हश्र हैं उस की गजाल सी आंखें
सुना है उस को हिरन दश्त भर के देखते हैं .
सुना है दिन को उसे तितलियाँ सताती हैं
सुना है रात को जुगनू ठहर के देखते हैं .
सुना है रात से बढ़ कर हैं काकुलें उस की
सुना है शाम को साये गुज़र के देखते हैं .
सुना है उस की सियाह चश्मगी क़यामत है
सो उस को सुर्माफरोश आह भर के देखते हैं .
सुना है उस के लबों से गुलाब जलते हैं
सो हम बहार पर इल्जाम धर के देखते हैं .
सुना है आइना तमसाल है जबीं उस का
जो सादा दिल हैं बन संवर के देखते हैं .
सुना है जब से हमाइल हैं उस की गर्दन में
मिजाज और ही लाल-ओ-गौहर के देखते हैं .
सुना है चश्म-ए-तसव्वुर से दश्त-ए-इमकान में
मलंग जलवे उस की कमर के देखते हैं .
सुना है उस के बदन के तराश ऐसे हैं
कि फूल अपनी क़बायें क़तर के देखते हैं .
वो सर्व-क़द है मगर बे-गुल-ए-मुराद नहीं
कि उस शजर पे शगूफे समर के देखते हैं .
बस एक निगाह से लूटता है काफिला दिल का
सो रह-रवान-ए-तमन्ना भी डर के देखते हैं .
सुना है उस के शबिस्तान से मुत्तसिल है बहिश्त
मकीं उधर के भी जलवे इधर के देखते हैं .
रुके तो गर्दिशें उस का तवाफ़ करती हैं
चले तो उस को ज़माने ठहर के देखते हैं .
किसे नसीब के बे-पैराहन उसे देखे
कभी कभी दर-ओ-दीवार घर के देखते हैं .
कहानियां हीं सही सब मुबालगे ही सही
अगर वो ख्वाब है ताबीर कर के देखते हैं .
अब उस के शहर में ठहरें कि कूच कर जायें
'फ़राज़' आओ सितारे सफ़र के देखते हैं .
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Friday, February 19, 2010
शकेब जलाली की दो ग़ज़लें
शकेब जलाली के बारे में बाजे वाली गली पर कुछ पढ़ा था।
1 अक्टूबर 1934 को कस्बा जलाली (अलीगढ़) में जन्मे सैयद हसन रिज़वी बंटवारे का शिकार होकर पाकिस्तान चले गए. 12 नवम्बर 1966 को रेल पटरी पर जाकर जान देने तक ज़माने की दुश्वारियों से दो-चार होते रहे. शकेब जलाली के नाम से ग़ज़लें कहीं.
फ़कत 32 साल जीकर जैसा शकेब कह गए, कई शायरों की बरसों की कोशिश भी उन्हें उस बुलन्दी तक पहुँचाने में शायद कामयाब नहीं हो पाए.
उनकी कुछ ग़ज़लें बाजे वाली गली पर हैं, कुछ कविताकोश पर भी हैं. दो यहाँ देखें.
1.
मुरझा के काली झील में गिरते हुए भी देख
सूरज हूँ, मेरा रंग मगर दिन ढले भी देख.
कागज़ की कतरनों को भी कहते हैं लोग फूल
रंगों का एतबार है क्या, सूंघ के भी देख.
हर चन्द राख हो के बिखरना है राह में
जलते हुए परों से उड़ा हूँ मुझे भी देख.
तूने कहा न था कि मैं कश्ती पे बोझ हूं
आंखों को अब न ढांप, मुझे डूबता भी देख
इन्सान नाचता है यहाँ पुतलियों के रंग
दुनिया में आ गया है तो इसके मज़े भी देख
2.
आके पत्थर तो मेरे सहन में दो-चार गिरे
जितने उस पेड़ के फल थे, पसे-दीवार गिरे
ऐसी दहशत थी फ़िज़ाओं में खुले पानी की
आँख झपकी भी नहीं, हाथ से पतवार गिरे.
मुझको गिरना है तो मैं अपने ही क़दमों में गिरुं
जिस तरह साय-ए-दीवार पे दीवार गिरे
तीरगी छोड़ गई दिन में उजाले के खुतूत
ये सितारे मेरे घर टूट के बेकार गिरे.
देख कर अपने दरो-बाम लरज़ उठता हूँ
मेरे हमसाये में जब भी कोई दीवार गिरे
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Wednesday, February 17, 2010
परवीन शाकिर की एक और ग़ज़ल
उस ने ख़ुश्बू की तरह मेरी पज़ीराई की
कैसे कह दूँ कि मुझे छोड़ दिया है उस ने
बात तो सच है मगर बात है रुस्वाई की
वो कहीं भी गया लौटा तो मेरे पास आया
बस यही बात है अच्छी मेरे हरजाई की
तेरा पहलू तेरे दिल की तरह आबाद रहे
तुझ पे गुज़रे न क़यामत शब-ए-तन्हाई की
उस ने जलती हुई पेशानी पे जो हाथ रखा
रूह तलक आ गई तासीर मसीहाई की
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“नींद जब ख़्वाबों से प्यारी हो” -- परवीन शाकिर
मेरा सर हाज़िर है लेकिन मेरा मुंसिफ देख ले
मेरी चादर तो छीनी थी शाम की तनहा'ई ने
नींद जब ख़्वाबों से प्यारी हो तो ऐसे अह'द में
रेत अभी पिछले मकानों की ना वापस आ'ई थी
सारे रिश्ते हिज्रतों में साथ देते हैं तो फिर
दुश्मनों के साथ मेरे दोस्त भी आज़ाद हैं
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Monday, February 15, 2010
कृषि आधारित उद्योगों का विकास
Sunday, February 14, 2010
पहली पोस्ट
शायद आप को कृत्या के पिछले अंक में प्रकाशित शशि भूषण की कविता पाखी की याद में चंद सतरें पसंद आये.
यहाँ आप इसी अंक में प्रकाशित मेरी कुछ छोटी कविताएँ भी पढ़ सकते हैं।