Friday, February 19, 2010

शकेब जलाली की दो ग़ज़लें

शकेब जलाली के बारे में बाजे वाली गली पर कुछ पढ़ा था।

1 अक्टूबर 1934 को कस्बा जलाली (अलीगढ़) में जन्मे सैयद हसन रिज़वी बंटवारे का शिकार होकर पाकिस्तान चले गए. 12 नवम्बर 1966 को रेल पटरी पर जाकर जान देने तक ज़माने की दुश्वारियों से दो-चार होते रहे. शकेब जलाली के नाम से ग़ज़लें कहीं.
फ़कत 32 साल जीकर जैसा शकेब कह गए, कई शायरों की बरसों की कोशिश भी उन्हें उस बुलन्दी तक पहुँचाने में शायद कामयाब नहीं हो पाए.
उनकी कुछ ग़ज़लें बाजे वाली गली पर हैं, कुछ कविताकोश पर भी हैं. दो यहाँ देखें.
1.
मुरझा के काली झील में गिरते हुए भी देख
सूरज हूँ, मेरा रंग मगर दिन ढले भी देख.

कागज़ की कतरनों को भी कहते हैं लोग फूल
रंगों का एतबार है क्या, सूंघ के भी देख.

हर चन्द राख हो के बिखरना है राह में
जलते हुए परों से उड़ा हूँ मुझे भी देख.

तूने कहा न था कि मैं कश्ती पे बोझ हूं
आंखों को अब न ढांप, मुझे डूबता भी देख

इन्सान नाचता है यहाँ पुतलियों के रंग
दुनिया में आ गया है तो इसके मज़े भी देख

2.
आके पत्थर तो मेरे सहन में दो-चार गिरे
जितने उस पेड़ के फल थे, पसे-दीवार गिरे

ऐसी दहशत थी फ़िज़ाओं में खुले पानी की
आँख झपकी भी नहीं, हाथ से पतवार गिरे.

मुझको गिरना है तो मैं अपने ही क़दमों में गिरुं
जिस तरह साय-ए-दीवार पे दीवार गिरे

तीरगी छोड़ गई दिन में उजाले के खुतूत
ये सितारे मेरे घर टूट के बेकार गिरे.

देख कर अपने दरो-बाम लरज़ उठता हूँ
मेरे हमसाये में जब भी कोई दीवार गिरे
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