Saturday, February 20, 2010

सुना है -- अहमद फ़राज़ की रचना

अहमद फ़राज़ की यह प्रसिद्ध कविता देवनागरी में पढ़िए और आनंद उठाइए:

सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं
सो उस के शहर में कुछ दिन ठहर के देखते हैं .

सुना है रब्त है उस को ख़राब हालों से
सो अपने आप को बर्बाद करके देखते हैं .

सुना है दर्द की गाहक है चश्म-ए-नाज़ुक उस की
सो हम भी उस की गली से गुज़र कर देखते हैं .

सुना है उस को भी है शेर-ओ-शायरी से शगफ़
सो हम भी मोजज़े अपने हुनर के देखते हैं .

सुना है बोले तो बातों से फूल झरते हैं
ये बात है तो चलो बात कर के देखते हैं .

सुना है रात उसे चाँद ताकता रहता है
सितारे बाम-ए-फलक से उतर के देखते हैं .

सुना है हश्र हैं उस की गजाल सी आंखें
सुना है उस को हिरन दश्त भर के देखते हैं .

सुना है दिन को उसे तितलियाँ सताती हैं
सुना है रात को जुगनू ठहर के देखते हैं .

सुना है रात से बढ़ कर हैं काकुलें उस की
सुना है शाम को साये गुज़र के देखते हैं .

सुना है उस की सियाह चश्मगी क़यामत है
सो उस को सुर्माफरोश आह भर के देखते हैं .

सुना है उस के लबों से गुलाब जलते हैं
सो हम बहार पर इल्जाम धर के देखते हैं .

सुना है आइना तमसाल है जबीं उस का
जो सादा दिल हैं बन संवर के देखते हैं .

सुना है जब से हमाइल हैं उस की गर्दन में
मिजाज और ही लाल-ओ-गौहर के देखते हैं .

सुना है चश्म-ए-तसव्वुर से दश्त-ए-इमकान में
मलंग जलवे उस की कमर के देखते हैं .

सुना है उस के बदन के तराश ऐसे हैं
कि फूल अपनी क़बायें क़तर के देखते हैं .

वो सर्व-क़द है मगर बे-गुल-ए-मुराद नहीं
कि उस शजर पे शगूफे समर के देखते हैं .

बस एक निगाह से लूटता है काफिला दिल का
सो रह-रवान-ए-तमन्ना भी डर के देखते हैं .

सुना है उस के शबिस्तान से मुत्तसिल है बहिश्त
मकीं उधर के भी जलवे इधर के देखते हैं .

रुके तो गर्दिशें उस का तवाफ़ करती हैं
चले तो उस को ज़माने ठहर के देखते हैं .

किसे नसीब के बे-पैराहन उसे देखे
कभी कभी दर-ओ-दीवार घर के देखते हैं .

कहानियां हीं सही सब मुबालगे ही सही
अगर वो ख्वाब है ताबीर कर के देखते हैं .

अब उस के शहर में ठहरें कि कूच कर जायें
'फ़राज़' आओ सितारे सफ़र के देखते हैं .
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