Saturday, February 20, 2010

एक ग़ज़ल मेरी भी पढ़िए

एक अपनी ग़ज़ल आपकी नज़र कर रहा हूँ। अच्छी लगे तो बताकर कृपया हौसला अफजाई करें, और अगर इसे बेहतर बनाने के ख़याल से कुछ तरतीम करने की जहमत उठाएं और भी कृतज्ञ होऊँगा :

हमसफ़र उसका कौन कभी भी रह पाता है
दस दस कदम पर जो रस्ता बदल जाता है।

खारे - गुल, दागे - माहताब, ताबे-खुर्शीद
खुश हो कैसे, यही जिसको नजर आता है।

लुकमान क्या छुडाए उसका आधाशीशी
हर अफकार को जो अहबाब से छुपाता है ।

फूल तो झड न पाएँगे उसकी छाती पर
जो दरिया सदा कनारों में आग लगाता है।

अलिफ़ से हे तक सीधे पढने वालो
बीच से बांचना भी बवक्त काम आता है।

शदीद अकीदत से जो बाम पे धरा जाए
वो दिया तूफानों को राह दिखाता है।

अल्लाह ही हाफिज उसके मुस्तकबिल का
सम्रे इमरोज जो किर्मे दीरोज को खिलाता है।

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1 comment:

Yogesh Verma Swapn said...

theek hai kanhaiya ji aapko aalhad dene ke liye, rachna bahut umda hai sach men.

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टिप्पणियाँ उत्साह बढ़ाती हैं । कृपया मेरी कृतज्ञता एवं धन्यवाद स्वीकार करें।