Friday, February 26, 2010

एक ग़ज़ल, शायद पसंद आए

मेरी ही एक ग़ज़ल और पढ़िए।

किसी को मेरा किस्सा तुम अगर कहना
रहे ध्यान कि मत हँस कर कहना

फेंकती दृष्टि संसार की जिसे सर पर मेरे
प्राणाधार मेरे, उसे ही तुम पत्थर कहना

प्रिय जिसको दृष्टि से अपनी गिरा फेंके
अयि भाषा-प्राण, तू उसे ही बेघर कहना

शोणित सिक्त शूलों से जो दिखे बना सा
हर उस पगडंडिका को तू मेरी डगर कहना

सूखेगा न कभी सुजीत की आँख का खारा पानी
है तेरी दृक्नीलिमा भरी, इसे तू समंदर कहना

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