Saturday, April 10, 2010

एक और ग़ज़ल

ये कायदा अपनी दुनिया का निराला है
हुस्ने-सुखन था अब जिसकी जुबाँ पे ताला है.
दरिया है बेकल अपने समन्दर के लिए

बशर है कि उसके इश्क में मतवाला है.
एड़ियाँ मिलेंगी उसे अह्सान की तरह

मौलसिरी सा जो कि खिलने वाला है.
माहताब है बेसुध अब्र के आगोश में

सहन हमारे में अश्क का उजाला है.
पूछ ले न कहीं चाँद दमकने का राज़

साँझ ढलते कमल सिमटने वाला है.
चलके शमए-दिल को आतिश-फिशां कर लूं

कि बरसरे सैर अब मेरा उजाला है.
धुल के और निखरेगा उनका सलोनापन सुजीत

तेरी आँख में अभी जो जल भरने वाला है.

Thursday, April 8, 2010

एक कविता -- इक घूँट भर आवाज की प्यास

देखिये और कहिये कि क्या यह कविता है? और हाँ तो फिर क्या इसने आपका समय बर्बाद किया?


मिस हो न जाए तुम्हारी काल,
डोलता रहा हूँ
मैं मोबाइल को मुट्ठी में लिए हुए,
कि लगता है वक्त काल लेने में
जेब से निकालकर
और कहीं
हो न जाएँ खामोश
घंटियाँ थक कर.

आग उगलती धूप के इस मौसम में
जीता रहा हूँ मैं
पीकर ओस कानों से,
कि
इक घूँट भर आवाज
हो कम तृप्ति के लिए
किंतु
करती है शीतल प्राण को,
देती है ललक कि जियूँ और
कि देखूँ फिर एक सूरज
कि करूँ फिर एक प्रतीक्षा
अगली घूँट के अवदान की ;
इस खटाक खामोशी के बाद.

आज जब मेरे मोबाइल का नलका
गर्म पानियों के ही गिलास भरता रहा :
मेरी शुभांशा ने ढकेला परे
तमाम दुश्चिंताओं और आशंकाओं को
और दी मुझे सांत्वना कि
सरू सनोवर के देवोपवन की
ठंडी ठिठुरन भरे तेरे देस में
बस कि जमी रह गई होगी यूँ ही
मेरे हिस्से की ओस
सारा दिन तेरे होठों के गुलाब पर।

पिपासाकुल मैं
लेटा हूँ चिपटा कर इस मोबाइल को,
कि कह रहे हैं फ़ैज़ कानों में मेरे
“जो नहीं बादा-ओ-सागर तो हा-ओ-हू ही सही”।
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