Thursday, April 8, 2010

एक कविता -- इक घूँट भर आवाज की प्यास

देखिये और कहिये कि क्या यह कविता है? और हाँ तो फिर क्या इसने आपका समय बर्बाद किया?


मिस हो न जाए तुम्हारी काल,
डोलता रहा हूँ
मैं मोबाइल को मुट्ठी में लिए हुए,
कि लगता है वक्त काल लेने में
जेब से निकालकर
और कहीं
हो न जाएँ खामोश
घंटियाँ थक कर.

आग उगलती धूप के इस मौसम में
जीता रहा हूँ मैं
पीकर ओस कानों से,
कि
इक घूँट भर आवाज
हो कम तृप्ति के लिए
किंतु
करती है शीतल प्राण को,
देती है ललक कि जियूँ और
कि देखूँ फिर एक सूरज
कि करूँ फिर एक प्रतीक्षा
अगली घूँट के अवदान की ;
इस खटाक खामोशी के बाद.

आज जब मेरे मोबाइल का नलका
गर्म पानियों के ही गिलास भरता रहा :
मेरी शुभांशा ने ढकेला परे
तमाम दुश्चिंताओं और आशंकाओं को
और दी मुझे सांत्वना कि
सरू सनोवर के देवोपवन की
ठंडी ठिठुरन भरे तेरे देस में
बस कि जमी रह गई होगी यूँ ही
मेरे हिस्से की ओस
सारा दिन तेरे होठों के गुलाब पर।

पिपासाकुल मैं
लेटा हूँ चिपटा कर इस मोबाइल को,
कि कह रहे हैं फ़ैज़ कानों में मेरे
“जो नहीं बादा-ओ-सागर तो हा-ओ-हू ही सही”।
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