Saturday, April 10, 2010

एक और ग़ज़ल

ये कायदा अपनी दुनिया का निराला है
हुस्ने-सुखन था अब जिसकी जुबाँ पे ताला है.
दरिया है बेकल अपने समन्दर के लिए

बशर है कि उसके इश्क में मतवाला है.
एड़ियाँ मिलेंगी उसे अह्सान की तरह

मौलसिरी सा जो कि खिलने वाला है.
माहताब है बेसुध अब्र के आगोश में

सहन हमारे में अश्क का उजाला है.
पूछ ले न कहीं चाँद दमकने का राज़

साँझ ढलते कमल सिमटने वाला है.
चलके शमए-दिल को आतिश-फिशां कर लूं

कि बरसरे सैर अब मेरा उजाला है.
धुल के और निखरेगा उनका सलोनापन सुजीत

तेरी आँख में अभी जो जल भरने वाला है.

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