Sunday, May 23, 2010

कविता की दुरुहता – एक विमर्श की आवश्यकता

किसी मित्र ने कल कहा कि उसे हिन्दी साहित्य में रुचि है और समय निकाल कर पढ़ता भी है पर “कविताएँ नहीं पढ़ता क्योंकि वह श्रमसाध्य होता है. समझने में मेहनत करनी पड़ती है.”
यह जो दुरुहता का “आरोप” है, वह मात्र पाठकीय संभ्रम है, रचनाकारों से पाठक-अपेक्षा की अभिव्यक्ति है, या फिर कविता के सहज गुणधर्म (गागर में सागर, चम्मच भर में चाँद या फिर कलशी में कलाश्‍निकोव भी भर लेने की क्षमता) के प्रति श्‍लाधा – यह एक विमर्श, एक बहस का मुद्दा हो सकता है।
फास्ट फूड – और एक अन्य मित्र के शब्दों में “disemvoweled SMSes” – के इस आपाधापी के दौर में पाठ्य साहित्य के प्रति प्रतिबद्धता ऐसे ही छीज चुकी है. बचे खुचे पाठक-वर्ग में भी थोड़ा समय, थोड़ी अटेंशन देकर कविता को समझने-आस्वादने के प्रति उत्पन्न हो रही अरुचि के कारण आसन्न संकट के प्रति हम यदि उदासीन रहे तो आज जो कुछ लोग सैकड़ों साल पहले के कवियों की रचनाओं का भी आनंद लेते हैं, उन्हीं लोगों की आगामी पीढ़ियों को चालीस वर्ष पूर्व के भी कवि अज्ञात होंगे.

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