Thursday, December 30, 2010

एक मुद्दत से आँख रोई नहीं -- परवीन शाकिर की गज़ल

नींद तो ख्वाब हो गई शायद
जिन्से-नायाब हो गई शायद

अपने घर की तरह वो लड़की भी
नज्रे- सैलाब हो गई शायद

तुझ को सोचूँ तो रोशनी देखूँ ,
याद, महताब हो गई शायद

एक मुद्दत से आँख रोई नहीं,
झील पायाब हो गई शायद

हिज्र के पानियों में इश्क की नाव,
कहीं गर्क़ाब हो गई शायद

चंद लोगों की दस्तरस में है
ज़ीस्त किमख़्वाब हो गई शायद
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