चमकन लागीं पथराई अँखियाँ,
उभर आए गीत कंठ से थके पंछियों के,
छू गई हुलसती वनलता
और खिल उठे
फूल बदबदा कर बूढ़े गूलर में ।
झुक-झुक आए मेह,
उठ-उठ बढ़ी सरिता,
कि दूर क्षितिज के पास
ज्यों अकस्मात
छू गए रसाक्त अधर शैलसुता के
भरे-भरे भारी, प्यास से धूसर,
वारिधितनय के ओष्ठ-द्वय से ।
बंसोट छिन में बदली
बाँसुरियों के वन में,
नभ का संगीत बनाती-सी
भू के निःश्वास को ।
लाल हुए टेसू सारे,
बौरा गए सब आम,
ले भाग धनु वृद्ध इन्द्र का
उतरा नभ तल पर चपल युवा पुष्पशर ।
भर गई गंध,
कि ज्यों फूल उट्ठे कहीं
कोटि-कोटि कचनार ।
गुलमोहर ने भर दिए आँचल हवा के,
और लगा पसीजने चाँद उसकी शाखों में
छान रही हो प्रकृति जैसे
दूधिया ठंडई
पीली मलमल के कपड़े से
कि मिल सके सोम-श्लथ देवों को
मस्तियाँ कुछ जमीं से भी ।
यह पावस नहीं था न वसंत,
कवि-स्वप्न तो न ही था,
वह भी न था जिसे हिकारत से कहती हो तुम
“शेरो – शायरी” किसी सस्ते तुक्कड़ की ।
यह मात्र अनुभव था उस घड़ी एक भर का
जब तुम पहुँची थी वहाँ
जहाँ मैं ले जाया करता हूँ खुद को
तब, जब हो पाता हूँ
अकेला, अपने सिर्फ अपने, साथ ।
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Friday, June 11, 2010
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