मैं बस अपनी गज़लें यहाँ पोस्ट कर रहा हूँ इन दिनों, कोई पढ़े शायद और बताए कि क्या केवल अपनी ग़ज़लें पोस्ट करना ठीक है या ... और शायद कोई यह भी बताए कि ये गज़लें ठीक हैं या ...
शायद अच्छा शब्द है । बड़ा सुकून देता है सोचना कि जो नहीं हो रहा है और इप्सित है वह शायद कभी हो ।
खैर, ग़ज़ल हाज़िर है:
हो उठा है बहुत अंधकार शहर में
अपेक्षा हुई है अब अधिकार शहर में
तुम भावना आराधना की बात करो यहाँ
सत्य तो है अब मात्र व्यापार शहर में
हर सरिता को बाँधते हैं तटबंध में वे
असीमित एषणा हो रही साकार शहर में
मैत्री, स्नेह, अनुराग की ऋतु नहीं अब
लालित्य का है अंतिम संस्कार शहर में
सुजीत किधर देखोगे कि धुआँ न मिले
अग्नि का अब नहीं पारावार शहर में
**********
1 comment:
मैत्री, स्नेह, अनुराग की ऋतु नहीं अब
लालित्य का है अंतिम संस्कार शहर में
सुजीत किधर देखोगे कि धुआँ न मिले
अग्नि का अब नहीं पारावार शहर में
बहुत खूब भाव
आपका स्वागत है सुबीर संवाद सेवा पर जहां गजल की क्लास चलाती है ओर मुशायरा आयोजित होता है लिंक मेरे ब्लॉग से ले लें :)
Post a Comment
टिप्पणियाँ उत्साह बढ़ाती हैं । कृपया मेरी कृतज्ञता एवं धन्यवाद स्वीकार करें।