4-5 दिनों से अपने चिट्ठे पर आया ही नहीं। क्षमा चाहता हूँ।
कभी यह ग़ज़ल लिखी थी। आप पढेंगे?
ऐसा ही तो इस धरा पर अक्सर होता है
हर हृदय की तरफ तना एक नश्तर होता है
जिधर कहीं किसी कुँज में बैठे हों दो जन
आ रहा कहीं से उधर ही कोई पत्थर होता है
सजे कागजों पर सधी लिखाई एक भरम है मात्र
जहर बुझा इन पत्रों का तो हर अक्षर होता है
प्रश्न वही मथा-निचोड़ा हृदयों को करते हैं मित्र
निश्चित नहीं जिनका कोई भी उत्तर होता है
यूँ भीष्म भी बहुत तो पाए नहीं जाते किन्तु
चुभते शरों का ही सदा उनका अंतिम बिस्तर होता है
वह आरती सी जलती है तुम चिता सा सुलगते हो
अग्नि अग्नि में भी बड़ा विचित्र अंतर होता है
अपराध तो सुजीत हो ही जाया करते हैं
प्रायश्चित कि दंड का कहाँ सदा अवसर होता है
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Friday, March 5, 2010
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