Monday, August 23, 2010

वह कवि की तुम

नाटोर कोथाय,
के वनलता,
सुश्री सेनेर की कथा?

सोचा और कहा जीवनानंद ने हौले से
“कविता का मैं हो
मैं कवि का भी,
जरूरी तो नहीं.”

सुन ली चुपके से उसने
यह वार्ता हमारी,
और पूछा:
“कवि मेरे, वह जो आती है
वह कि तुम बन कर,
तुम्हारी तुकबंदियों में:
वह मैं हूँ क्या?”

कैसे, किसे बता पाए कौन,
झड़ती पँखुड़ियाँ देसी गुलाब की
ढोतीं नहीं अंगुलियों के निशान,
केश-जल में सद्य:स्नाता के
नहीं लिखा होता नदी का नाम,
और
अंगीकार नहीं होता मुहताज
किसी इकरारनामे का,
*****************

No comments:

Post a Comment

टिप्पणियाँ उत्साह बढ़ाती हैं । कृपया मेरी कृतज्ञता एवं धन्यवाद स्वीकार करें।