Sunday, December 25, 2011

अप्रील 2010 की और दो कविताएँ



(एक)



आच्छादती जा रही थी बेल
और
हुमक कर बढ़ ठिठक रहा था
आम्रद्रुम.

बौराए से आए लोग
दरांतियाँ लेकर

कि
आ रही है रुत
बौर आने की

कैसे मिलेगी धूप वृक्ष को
जो काटी न वल्लरी.

धूप सर पर उठाए
बुनता रहा छाँह आम
कतरी बेल के पत्रों हित.

अहा,
आज बुढ़ाते इस पेड़-सा
खुश कौन है जहाँ में

कि उड़ कर चिपट गई है
वल्लरी उस से
बन कर अमरबेल.

अब जड़ है ऊपर
बेल की
और
कल्पद्रुम समझ
स्वयं को,
इतरा रहा है आम.
********

(दो)


मैं कर रहा हूँ महसूस
तुम्हारा दर्द ,

जानता हूँ कि
किस तरह खरोंचें लगाता है
अपने डैनों की धार से,
झपट्टे मारता तेरे गिर्द बार बार
यह मुआ श्येन मृत्यु का.

मैं देख रहा हूँ
दूर, बहुत दूर, तुम्हें
शोकाकुल, विह्वल, दोहरी दर्द से,
व्यथा - स्तब्ध, गुमशुम, उदास ;

और यात्रारत :

कि
यात्राएँ भी तो आती हैं हमारी राहों में
तय करवा कर अपनी दिशा, अवधि, दूरी.

यह तुषारापात
हिम, तुहिन के पथ पर चलती हुई तुम पर,
और शोकाकुल स्तब्धता तुम्हारी ,
कर गए हैं मुझे जड़
कि ज्यों फ़ालिज़ सा पड़ गया हो
मेरे मस्तिष्क पर .

मैं सोच नहीं पा रहा
कैसे दूँ सान्त्वना तुझे ,
और कैसे दूँ सान्त्वना
तेरे दुःख से दग्ध, तड़पते खुद को भी.
********

No comments:

Post a Comment

टिप्पणियाँ उत्साह बढ़ाती हैं । कृपया मेरी कृतज्ञता एवं धन्यवाद स्वीकार करें।