Sunday, December 25, 2011

अप्रील 2010 की कुछ कविताएँ -- कोई कश्मीर में – दो सतरें



(एक)

साँझ ढले आई है
मुनिया सूरज के आँगन की
और
बाँट रही है आइसक्रीम .

इस गर्म मौसम में यहाँ
रख दी है मैंने भी तश्तरी
तालाब के तल पर
और हूँ खड़ा किनारे

कि गर्म कपड़ों में अपने शिकारे पर
तुमने भी शायद लिया हो आनंद अभी
कहवे का
इस मलाई की बरफ के साथ.
********

(दो)


ताप दुःसह ऊपर से प्रवहमान
और
बगूले बगल के उड़ाते
गुबार नीचे उठ रहा :

निकलता रहा हूँ हर शाम
दर्दीली आँखें लिये
दफ़्तर से मैं .

पाता रहा सुकून
अखबार देखने भर को –
तेरे ही दरस से

कि ज्यों परस गया हो पलकों को
ओस नहाया कोई गुलाब .

पर अब जब कि
गई हो तुम
फूलों की वादियों और बरफीली घाटियों के देस,

पढ़ता हूँ मैं
आग भरी आँखों से
बस वहाँ के मौसम का हाल –

और सोचता हूँ

देख रहा होगा गुलमर्ग पहली बार
खिला हुआ बाग पूरा का पूरा
ठंड से कपकपाती
एक ही लता पर .
********

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