Wednesday, October 20, 2010

ये ज़माना यूसुफ़ को पत्थर बना देता है

वह माहताब को चरागे-सहर बना देता है
कभी कतरे को वह गुहर बना देता है ।

तासीर-ए-मेहर से अमीरे-शहर अक्सर
तुख्म-ए-गुल को शह-समर बना देता है ।

मुहब्बत की चिता का धुआँ कम्बख्त
शीरीं लबों को जाम-ए-जहर बना देता है ।

रब्त रसूखदारों से रखा करिए आप
ये बेहरूफ़ को भी सुखनवर बना देता है ।

इस्तेमाल करिए जो ज़ीने को जीने में
वह पिद्दी को भी नामवर बना देता है ।

मान लीजिए ये मशवरा सुजीत का वरना
ये ज़माना यूसुफ़ को पत्थर बना देता है ।
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2 comments:

Rajeev Bharol said...

बहुत बढ़िया..

Anonymous said...

Hairat Angez hai naseeb meraa bhii,
Tere karam ko bhi ik kahar banaa deta hai.

- Ashok

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