Wednesday, December 4, 2013

शकेब ज‌लाली की एक और गज‌ल


मजा‌ज को सोचते हुए अगर शकेब याद आएँ तो इसकी वजह तो किसी को ख़ोजनी ही चाहिए -- खास तौर पर तब जब कि शकेब 32 बरस की जिंदगी के बाद से बस रौशनी हो गए होँ और जिसे याद आ रहे हों वह कब का उस उमर को पीछे छोड़ चुका हो.....


वहाँ की रोशनियों ने भी ज़ुल्म ढाए बहुत
मैं उस गली में अकेला था और साए बहुत

किसी के सर पे कभी टूटकर गिरा ही नहीं
इस आसमाँ ने हवा में क़दम जमाए बहुत

हवा का  रुख़ ही अचानक बदल गया वरना
महक के काफ़िले सहराँ की सिम्त आए बहुत

ये क़ायनात है मेरी ही ख़ाक का ज़र्रा
मैं अपने दश्त से गुज़रा तो भेद पाए बहुत

जो मोतियों की तलब ने कभी उदास किया
तो हम भी राह से कंकर समेट लाए बहुत

बस एक रात ठहरना है क्या गिला कीजे
मुसाफ़िरों को ग़नीमत है ये सराय बहुत

जमी रहेगी निगाहों पे तीरगी दिन भर
कि रात ख़्वाब में तारे उतर के आए बहुत

शकेब कैसी उड़ान अब वो पर ही टूट गए
कि ज़ेरे-दाम जब आए थे फड़फड़ाए बहुत.

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