पिछली पोस्ट में सैकड़ों साल पहले के कवियों की रचनाओं का आनंद लेने के बारे में लिखते हुए मेरे मन में अमीर खुसरो (1253 – 1325 AD) की मशहूर गज़ल आ रही थी।
लीजिए वह गज़ल यहाँ प्रस्तुत है।
ज़िहाल-ए मिस्कीं मकुन तगाफ़ुल,
दुराये नैना बनाये बतियां
कि ताब-ए-हिजरां नदारम ऎ जान,
न लेहो काहे लगाये छतियां ।
जरूरतमंद की हालत की कर न उपेक्षा आँख छुपा न बना बातें
वियोग सहन-शक्ति न है ए प्रिय क्यों न आ के सीने से लगाते।
शबां-ए-हिजरां दराज़ चूं ज़ुल्फ़
रोज़-ए-वस्लत चो उम्र कोताह,
सखि पिया को जो मैं न देखूं
तो कैसे काटूं अंधेरी रतियां ।
जुल्फ सी लाँबी विरह निशा और मिलन के दिन उम्र से छोटे
सखि री प्रिय को न देखूँ तो कैसे गुजारूँ ये अंधेरी रातें।
यकायक अज़ दिल, दोचश्म-ए-जादू
ब सद फ़रेबम बबुर्द तस्कीं,
किसे पड़ी है जो जा सुनावे
पियारे पी को हमारी बतियां ।
औचक ले उड़ीं तस्कीन दिल से सौ धोकों भरी दो जादू भरी आँखें
है गर्ज किसे पड़ी कि जा बताए प्रिय को मिरे हाल की बातें।
चो शम्अ सोज़ाँ, चो ज़र्रा हैराँ
ज़ मह्रे आँ मह बगश्तम आख़िर
न नींद नैना, ना अंग चैना
ना आप आवें, न भेजें पतियां ।
दीप सी जलूँ धूल सी बिखरूँ होके उसके करम से महरूम आखिर
न चैन पड़े कुछ न आए नींद, जो न खत आता न वो खुद आते।
बहक्क-ए-रोज़े- विसाल-ए-दिलबर
कि दाद मारा, फरेब खुसरौ
सपेत मनके, दोराये राखूं
जो जाये पाऊँ, पिया के खतियां ।
प्रिय मिलन दिवस का नाम ले के दिया है धोका खुसरो ने
जो जा पाऊँ प्रीतम्र-प्रासाद, सजाऊँ दिल धर के सफेद मुक्ते ।
पोस्ट एडिटर के चौखटे में गज़ल डालते हुए खयाल आया तो अभी अभी एक भावानुवाद कर हर शे’र के नीचे वह भी डाल दिया है। यह सीधा कीबोर्ड पर किया गया प्रयास है – न पुनरीक्षित किया गया है न ही मैंने स्वयं से पद्यानुवाद की अपेक्षा की है। शायद कुछ काम आए।
Sunday, May 23, 2010
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
1 comment:
वाह वाह मज़ा आ गया
दिल खुश हो गया अनुवाद पढ़ कर
खुसरो साहब की ये गजल मैं अक्सर सुनता हूँ अब तक केवल धुन और हिंदी में लिखे मिसरे ही पसंद थे
अब जबकि फारसी मिसरे का अर्थ भी पता है तो "मेरे लिए" गजल मुकम्मल हो गई
बहुत बहुत धन्यवाद
Post a Comment
टिप्पणियाँ उत्साह बढ़ाती हैं । कृपया मेरी कृतज्ञता एवं धन्यवाद स्वीकार करें।