जो लोग उफनती मौज़ों से डर गए
वो सब के सब कनारों प’ ठहर गए ।
इस हिकारत से उन्हें पुकारा उसने
शर्मसार होके अश’आर मिरे मर गए ।
डोर दिल से उनकी बंधी थी यों कर
मोती तमाम पलकों पर ही ठहर गए ।
मंजिले-मकसूद थी सोहबत-ए-रहबर
इसीलिए कई लोग जानिबे-सफर गए ।
देखा बागवां को कैंची जो सीमी लिए
गुलाब सारे ही बाग के बिखर गए ।
दरिया को इतनी थी फ़िक्रे तश्नगी
सैलाब आया 'सुजीत' हम जिधर गए ।
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Tuesday, June 29, 2010
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2 comments:
sundar lekhan .
उम्दा गजल
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