Sunday, May 23, 2010

कलीम आजिज़ की गज़ल

मेरे ही लहू पर गुजर औकात करो हो
मुझ से ही अमीरों की तरह बात करो हो

दिन एक सितम एक सितम रात करो हो
कि दोस्त हो, दुश्मन को भी तुम मात करो हो

हम खाक-नशीं, तुम सितम आरा ए सरे- बाम
पास आके मिलो, दूर से क्या बात करो हो

हमको जो मिला है वो तुम्हीं से तो मिला है
हम, और भुला दें तुम्हें, क्या बात करो हो

यूँ तो मुझे मुँह फेर के देखो भी नहीं हो
जब वक्त पड़े है तो मदारात करो हो

दामन पे कोई छींट, न खंजर पे कोई दाग
तुम कत्ल करो हो कि करामात करो हो


बकने भी दो आजिज़ को जो बोले है बके है
दीवाना है, दीवाने से क्या बात करो हो

1 comment:

Sonal Singh said...

ये पंक्तियाँ, इस नाचीज़ की ओर से, सिर्फ आपके लिए:
आये दिन अपने कलम से, ऐसा घात करो हो
ऐसे लेखक हो तुम, खिलाड़ियों को मात करो हो
जग जाए सोच, हिल जाए दिल, ऐसे बात करो हो
वो प्रशंसक हो, नाचीजों की तारीफ भी दिन रात करो हो...

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